चेतन (आत्मा) और योग(साधना)

“परमात्मा, खुदा गॉड या सर्वोच्च सत्ता-शक्ति के संकल्प से उत्पन्न दिव्य ज्योति, डिवाइन लाइट, नूरे इलाही या चाँदना ही चेतन आत्मा (Soul)”
सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व जबकि एकमात्र परमपिता परमेश्वर ही थे जो के परमात्मा, खुदा, अल्लाहतला, गॉड, भगवान, सर्वोच्च सत्ता-शक्ति, परमतत्त्वम्, आत्मतत्त्वम्, परमसत्य, परमहंस, शब्दब्रह्म, परमब्रह्म आदि नामों से जाने जाते हैं। उसी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमात्मा से सर्वप्रथम उत्पन्न आत्म ज्योति मात्र ही चेतन, आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म, नूरे इलाही, डिवाइन लाइट, सोल, शक्ति, हंस आदि नामों से जानी जाती है। आदि काल से लेकर वर्तमान तक के बहुसंख्यक गणमान्य योगी, ऋषि, महर्षि एवं सिद्ध महात्माओं ने भी भ्रम, भूल एवं मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण चेतन, आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रह्म को ही परमब्रह्म, नूर को ही खुदा, शक्ति को ही सर्वोच्च शक्ति, हँसो-सोsहं को ही आत्मतत्त्वम्, हंस को ही परमहंस, ज्योति को ही परमतत्त्वम् शान्ति को ही परमशान्ति, चिदानंद को ही सच्चिदानंद रूप परमानन्द, कल्याण को ही परम कल्याण, शिव को ही परमात्मा, स्वराट शरीर को ही विराट ब्रह्माण्ड, जीवात्मा वाले शरीर के अन्दर हृदय गुफा या आज्ञा-चक्र या सिर को ही परमात्मा का निवास स्थान परमधाम, अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान, योग की क्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान की पद्धति, गुरु को ही सदगुरु, सोsहं-हँसो तथा ज्योति रूप जीवात्मा वाले शरीर (महात्मा या योगी) को ही परमात्मा की जानकारी व पहचान कराने वाला तत्त्वज्ञान वाला शरीर (अवतारी) आदि घोषित कर रहे हैं, साथ ही अपने अनुयायियों को भी परमात्मा के नाम पर इसी चेतन आत्मा में ही फँसाये रखते हैं। इस चेतन आत्मा वाले वर्ग में आदिकालीन ब्रह्मा जी, शंकर जी, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ, सप्तर्षि आदि; त्रेतायुगीन, वशिष्ठ, भारद्वाज, अंगीरस, लोमश, अगस्त्य, बाल्मीकी, अथर्वा, याज्ञवल्क्य आदि समस्त ऋषि महर्षि; द्वापरयुगीन पाराशर, व्यास, शौनक, शुकदेव, अष्टावक्र, दुर्वासा, संदीपन गुरु, नौ योगेश्वर (कविजी, हरिजी, अन्तरिक्ष जी, प्रबुद्ध जी, पिप्लायन जी, आविहेत्री, द्रुमुल जी, चमस जी तथा कारभाजन जी), ऋषभदेव जी, महात्मा ऋभु, महात्मा निदाद्य, मत्स्येंद्र नाथ जी, गोरखनाथ जी आदि; कलियुगीन महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, मुत्था अली, श्रीमद् आद्यशंकराचार्य, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, कबीरदास जी, गुरुनानक देव जी, सन्त रामानंद जी, रविदास जी, सन्त तुलसीदास जी, रामदास, सुंदरदास, सन्त दरिया साहब, दादू, पल्टू, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, सन्त कृपालदास, राधा स्वामी, स्वरूपानन्द, ब्रहमानन्द जी, श्री हंस जी, श्री भूमानन्द, स्वामी शिवानन्द जी, स्वामी योगानन्द जी, श्री गुरुवचन सिंह, महर्षि मेंही जी, महर्षि महेश योगी, माँ आनन्दमयी, प्रजापति ब्रह्मकुमारीजी, आनन्दमूर्ति, मुक्तानंद जी, श्री साँई बाबा, श्री रजनीश, श्री जयगुरु देव, जनदिन स्वामी, श्री सन्मयोंग मून, श्री आनन्द, सतपाल तथा श्री बालयोगेश्वर आदि समस्त अध्यात्मवेत्तागण ही इसी चेतन आत्मा वाले मात्र ही लोग हैं। परन्तु भ्रम, भूल एवं मिथ्याज्ञानाभिमान वश इसी चेतन आत्मा को ही परमात्मा घोषित कर रहे हैं तथा स्वयं योगी, महात्मा, गुरु आदि के स्थान पर तत्त्वज्ञानी, अवतारी, सदगुरु आदि भी बने जा रहे हैं, जबकि इन लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। करोड़ों-करोड़ों धर्म व भगवद् प्रेमी लोग इन लोगों में ऐसे फँस गए हैं कि परमात्मा-खुदा-गॉड की वास्तविक जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान से भी वंचित हो रहे हैं।
परमात्मा, शरीर नहीं है अपितु एक सर्वोच्च-सत्ता है जिसकी जानकारी दर्शन तथा बात-चीत करते हुये, पहचान एकमात्र तत्त्वज्ञान – जो कि एक विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति होती है, से होती है। साधना से रहित व जप, तप, नेम, पूजा, पाठ, वेदाध्ययन आदि से परे जो स्वयं आत्मतत्त्वम् रूप परमात्मा द्वारा ही दिया गया अपना पूर्ण परिचय तथा पहचान है, वही तत्त्वज्ञान है। इस आत्मतत्त्वम् रूप परमात्मा का पूर्णअवतार तीन बार श्री विष्णु जी वाले शरीर, श्री राम जी वाले शरीर तथा श्री कृष्ण जी वाले शरीर के माध्यम से हो चुका है। जिसे आज स्वीकार तो सभी करते हैं परन्तु जिनका स्वार्थ नहीं सधता वही इंकार करता है और अब पुनः उसी आत्मतत्त्वम् रूपी परमात्मा का पूर्ण अवतरण जो चौथा अवतार कहलाएगा, हुआ है जिसे वर्तमान में भगवद् प्रेमी, धर्म प्रेमी बंधुओं को जानना है, देखना है, समझना है, इतना ही मात्र नहीं, बात-चीत करते हुये पहचान भी करना है। वह न तो आत्मा है और न जीव ही है, वह शक्ति भी नहीं है, बुद्धि व मन तथा इन्द्रियों की बात क्या की जाय? अब देखा जाय कि आत्मा क्या है ? जीव क्या है ? शक्ति क्या है ? चित्त क्या है? बुद्धि, मन तथा इंद्रियाँ क्या है ?
आत्मा (Soul)- “परमतत्त्व रूपी परमात्मा से उत्पन्न चेतनता (Consciousness) से युक्त आत्म ज्योति मात्र ही आत्मा है।”
“कोषकीय पद्धति (Cell System) से निर्मित शरीरों के माध्यम से कार्य करने वाली सत्ता (Exist) आत्मा है।” जीवधारी शरीरों के अन्दर कार्य करने वाली सत्ता (Exist) आत्मा है।
योग या साधना – जीव का चेतन आत्मा की जानकारी व दर्शन के माध्यम से अजपा-जप तथा ध्यान आदि के द्वारा मिलन एवं आत्मा द्वारा जीव को शक्ति प्रदान की प्रक्रिया ही योग-साधना है। अर्थात जीव का आत्मा से मिलन की क्रिया ही योग-साधना है।

जीव या सूक्ष्म शरीर 
जीव- सूक्ष्म रूप में इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से युक्त आत्मा ही जीव या सूक्ष्म शरीर है।
ठीक स्थूल के जैसा ही स्थूल के माध्यम से कार्य करने वाला सूक्ष्म शरीर ही जीव है। सुख-दुख, भूख-प्यास तथा कष्ट एवं आनन्द की अनुभूति करने वाला सूक्ष्म शरीर ही जीव है। आवागमन, स्वर्ग-नरक, देव योनि तथा प्रेत योनि भी इसी सूक्ष्म शरीर रूप जीव की ही होती है। पुनर्जन्म भी जीव का ही होता है।
जीव या सूक्ष्म शरीर की पाँच अवस्थाएँ होती हैं-
(1) जाग्रतावस्था – जीव या सूक्ष्म शरीर का क्रियाशील रूप में शरीर में कायम (स्थित) रहना ही जाग्रतावस्था है। जीव की क्रियाशीलता ही इन्द्रियों की क्रियाशीलता के रूप में आभासित होती है।
(2) आलस्य – जीव या सूक्ष्म शरीर का शरीर के अन्दर क्रियाहीन अवस्था में स्थित रहना ही आलस्य है।
(3) स्वप्नावस्था- जीव या सूक्ष्म शरीर का पुनर्वापसी की अवस्था में रहते हुये क्रियाशील अवस्था में शरीर से बाहर रहना ही जीव की स्वप्नवास्था है। स्वप्न मन की कल्पना या बुद्धि का विवर्त नहीं है अपितु जीव का स्थूल शरीर से क्रियाशील रूप में अलग रहना ही स्वप्न है।
(4) सुषुप्ति अवस्था – जीव या सूक्ष्म शरीर का पुनः वापसी की अवस्था में रहते हुये स्थूल शरीर से बाहर क्रियाहीन अवस्था में रहना ही सुषुप्ति अवस्था है।
(5) तुरीयावास्था – जीव या सूक्ष्म शरीर का साधना या ध्यान आदि के माध्यम से आत्मा या कारण शरीर से मिलकर स्थूल शरीर से बाहर एकाकार अवस्था में स्थित रहना ही तुरीयावस्था है। यह साधना सिद्धि की अवस्था होती है।
विचार- जीव या सूक्ष्म शरीर के कार्य करने के एकमात्र माध्यम को विचार कहते हैं।
किसी कार्य के विषय में कि यह गुणमय है या दोषमय- यह चिन्तन ही विचार है। कोई विचार या उसका कार्य दो भागों में विभाजित हुआ है- गुण विभाग के विचार या कार्य तथा दोषमय विचार या कार्य।
गुणमय विचार- वे विचार या चिन्तन-मनन जो हमें असत्य से सत्य की ओर, ऐंद्रिक मात्र सुख या दुख से चेतन आनंदमय स्थिति की ओर, क्षणिक सुख-शान्ति से शाश्वत् शान्ति आनन्द की ओर तथा जड़ से चेतन और चेतन से परमतत्त्वम् रूपी परमात्मा की ओर उठाने वाले विचार या उसके कार्य ही गुणमय या गुणविभागीय विचार हैं।
दोषमय विचार- वे विचार या चिन्तन-मनन जो हमें सत्य से असत्य की ओर, आनंदमय स्थिति से ऐंद्रिक व सांसारिक सुख-दुख की ओर, शाश्वत् शान्ति एवं आनन्द से क्षणिक सुख की ओर तथा परमात्मा से चेतन आत्मा एवं चेतन आत्मा से जड़ की ओर गिराने वाले विचार दोषमय विचार हैं।
गुणमय कार्य- बुराई से अच्छाई की तरफ चलना-करना-कराना, भोगना, गुणमय कार्य है।
दोषमय कार्य- अच्छाई से बुराई की तरफ ले जाने वाला विचार, कार्य एवं भोग दोषमय कार्य है।



शक्ति, ध्वनि और प्रकाश (Power, Sound and Light)
शक्ति (Power)- परमात्मा से उत्पन्न चेतन तथा विचार-शक्ति (Consciousness or Thinking Power)से रहित ज्योति मात्र ही शक्ति है।
ध्वनि और प्रकाश (Sound and Light)- शक्ति वास्तव में ध्वनि और प्रकाश के रूप में गतिशील होती है। जब कभी भी कोई शक्ति को जानना व देखना चाहेगा तो उसे ध्वनि और प्रकाश के रूप में ही जानना व देखना पड़ेगा क्योंकि ध्वनि और प्रकाश शक्ति की ही यथार्थ स्थिति है। इसलिए जिसकी जो यथार्थ स्थिति होती है उसी से उसे जाना व देखा जा सकता है।
ध्वनि (Sound)- शक्ति की गतिशीलता से (गति से) उत्पन्न आवाज (Voice) ही ध्वनि है।
आवाज (Voice)- श्रवणेंद्रिय एवं अतीन्द्रिय के माध्यम से पकड़ में आने वाली जानकारी ही आवाज है।
प्रकाश (Light)- चक्षु(दृष्टि) एवं अतीन्द्रिय के माध्यम से पकड़ में आने वाली किसी वस्तु एवं शक्ति के रूप में पकड़वाने (दिखाने) वाली जानकारी ही प्रकाश है।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस


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