तेज-पुंज से पिण्ड रूप पृथ्वी

आदि में, परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप में स्थित शब्द-ब्रह्म या वचन या परमेश्वर के संकल्प से ‘आत्म’ शब्द छिटका जो ज्योति के साथ था, जो आत्म-ज्योति कहलाया। चूँकि आदि के पूर्व में जब मात्र परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म ही था, जो अपने आपको अज्ञानान्धकार रूप पर्दा डालकर सदा अपने को छिपाए रखता है, जिसका परिणाम यह होता है कि कोई भी वहाँ बिना उसके ले जाने के, नहीं जा सकता है परन्तु उससे उत्पन्न आत्म-ज्योति में से पुत्र रूप ‘आत्म’ शब्द अपने पैतृक मात्र ‘शब्द’ रूप में रह गया और पुत्री रूप ज्योति पृथक हो गयी। चूँकि पैतृक पर रहने वाला ‘आत्म’ शब्द अपने पिता परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘वचन’ के रूप में ‘शब्द’ रूप में ही रह गया। इसीलिए पिता का सत्ता-सामर्थ्य रूप चेतनता अंशवत् पुत्र में ही रह गयी, जिसका परिणाम यह हुआ कि पिता रूप शब्द-ब्रह्म के रूप ‘शब्द’ रूप में रह जाने के कारण पिता के गुण-स्वभाव पुत्र में भी आए। पिता अमर है, तो पुत्र अविनाशी, पिता रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ ‘एक’ है तो पुत्रगण एक रूप। पिता ‘वचन’ शाश्वत् है, तो पुत्रगण स्थिर, पिता ‘शब्द-ब्रह्म’ सदा-सर्वदा कायम है, तो पुत्र भी शब्द (आत्म) नाम ‘नाम’ भी जब तक पिता के नाम-रूप-गुण में रहता है, तो पिता शब्द-ब्रह्म के साथ ही पुत्रवत् ‘आत्म’ शब्द भी कायम रहता है परन्तु वह पुत्र ‘आत्म’ शब्द माता ‘रूप’ के साथ यदि जुट गया तो अगले पुत्र (उसका पुत्र का पुत्र, पुत्र का पुत्र आदि इसी क्रम से आज तक) के आने तक तो ‘आत्म’ शब्द रहेगा, पुनः पुत्र का ‘आत्म’ शब्द (पुत्र का नाम) दर्ज हो जाएगा। यही क्रम चलता हुआ आज तक पहुँच गया है अर्थात् ‘आत्म’ शब्द जैसे ही अपना मूलतः ‘आत्म’ शब्द बदलकर रूपमय शब्द (शारीरिक नाम) में हो जाता है, वैसे ही अपने विनाशकारी स्थान को प्राप्त हो जाता है।
आत्म-ज्योति से ‘आत्म-शब्द’ को छोड़कर ज्योति जैसे ही अलग हुई, सर्वप्रथम स्थान छोड़ते ही ‘शब्द-ब्रह्म’ (आत्मतत्त्वम्) तथा ‘आत्म’ से अपने को ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज-पुंज’ (Supper Fluid) रूप में बदल लिया और शब्द प्रधान न रहकर ‘रूप’ प्रधान होकर ‘शब्द-ब्रह्म’ रूप पिता तथा ‘आत्म’ शब्द रूप भ्राता से भी अलग हो गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘शब्द’ के समस्त गुणों के प्रतिकूल ‘रूप’ विनाशशील। ‘आत्म’ शब्द अविनाशी है तो ‘रूप’ विनाशशील। ‘आत्म’ अपरिवर्तनशील है तो ‘रूप’ परिवर्तनशील है। ‘आत्म’ शब्द स्थिर है, तो ज्योति-रूप भिन्न-भिन्न। ‘आत्म’ शब्द अखंडित है तो रूप विखंडित।
आत्म-ज्योति से ज्योति पृथक होते ही एक दूसरे ‘प्रचण्ड प्रवाहयुक्त अक्षय तेज पुंज’ रूप में परिवर्तित हो गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि पृथकता और परिवर्तनशीलता इसका स्वाभाविक गुण हो गया। अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’, ‘आत्म’ शब्द से टकराकर विखण्डित हो गयी, जिसके कारण अनेक ‘प्रवाह युक्त तेज-पुंजों’ में परिवर्तित हो गयी। चूँकि विखण्डित समस्त पृथक हुए ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ के अंश मात्र थे। इसलिए ‘तेज शक्ति क्षमता’ भी अंशवत् ही होती गयी। पुनः ‘प्रवाहयुक्त तेज पुंज’ भी अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण विखण्डित हो गयी, जिसकी ‘तेज शक्ति क्षमता’ इसकी अंशवत् होने लगी और ऐसे ही होते-होते ‘तेज-पुंज’ ‘तेज क्षमता की कमी से द्रवीभूत होकर पेट्रोल, स्पिरिट, मिट्टी का तेल, डीजल, मोबिल आदि पदार्थों में परिवर्तित होता गया। पुनः समय क्रम से क्षमता क्रम की कमी होती गयी और वस्तुएं द्रव से भी घनीभूत रूप ठोस कोयला आदि में परिवर्तित हो गईं।
यह बात भी अनिवार्यतः जान लेने की है कि विखण्डित अंशों में तेज कायम रहे, इसके लिए अंशों रूप केंद्रों द्वारा अपने-अपने अंशों को तेज की आपूर्ति होती रहती है। यह तेज जो आपूर्ति होती रहती है वही ‘लू’ अथवा ‘प्रवाहयुक्त तेज’ (Flue) भी कहलाता है, जिसे विज्ञान की भाषा में ‘इलेक्ट्रान’ कहा जाता है।
‘सूर्य शब्द तथा ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप से जब ‘पृथ्वी’ शब्द तथा ‘तेज-पुंज’ रूप पृथक हुआ और सूर्य के इर्द गिर्द भ्रमण करने लगा, तब चूँकि ‘तेज पुंज’ ‘प्रवाहयुक्त तेज पुंज’ से उत्पन्न हुई थी, इसीलिए उसी गुण से युक्त रहते हुये यह ‘तेज पुंज’ भी प्रवाह रूप में ही शून्य आकाश में ही सूर्य के चारों तरफ भ्रमण करने लगी थी, तो तेज-पुंज के प्रवाहित होने से ही वायु-तत्त्व की उत्पत्ति होती रहती है। ‘पृथ्वी’ तेज-पुंज’ से किस प्रकार स्थूल या ठोस-पदार्थ का रूप लेकर ‘पिण्ड’ रूप हो गयी, यह सारी जानकारी इसी सद् ग्रन्थ के प्रथम ‘संसार’ नामक अध्याय में देखें। यहाँ पर यह न सोचा जाय कि हम वह पढ़ चुके हैं, यहाँ पर यथार्थतः अग्रिम जानकारी हेतु एक बार पुनः उसे दोहरा लिया जाय तो बड़ा ही अच्छा होगा।

नाम और रूप 
‘नाम’ का अर्थ उस ‘शब्द-विशेष’ से है, जिसके माध्यम से किसी सत्ता-शक्ति अथवा व्यक्ति-वस्तु विषय की जानकारी प्राप्त हो।
‘रूप’ का अर्थ उस ‘आकृति-विशेष’ से है जिसके माध्यम से किसी सत्ता-शक्ति अथवा व्यक्ति-वस्तु की पहचान अथवा ‘बोध’ रूप परिचय प्राप्त हो।
नाम (शब्द) में ‘रूप’ का बोध छिपा रहता है और रूप में शब्द (नाम) का ज्ञान छिपा रहता है। दूसरे शब्दों में, ‘शब्द’ में सत्ता-सामर्थ्य तथा वस्तु का बोध छिपा रहता है और रूप में ‘शब्द’ का ज्ञान छिपा होता है। नाम और रूप का आपस में सम्बन्ध हुये बिना सृष्टि के अन्तर्गत किसी भी कार्य को किसी भी रूप में क्रियाशील अथवा जान-पहचान नहीं किया जा सकता है। अर्थात् नाम और रूप का अनन्य सम्बन्ध होता है। किसी भी कार्य को करने अथवा क्रियाशील होने के लिए आपस में दोनों का मेल या सम्बन्ध का होना एक अनिवार्य पहलू है। यही कारण है कि कोई व्यक्ति ज्योति का सहारा लिए बगैर किसी भी स्थूल वस्तु को पहचानना तो दूर रहा देख ही नहीं सकता है और दूसरी तरफ किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु को ‘शब्द’ का सहारा लिए बगैर अच्छा सम्बन्ध होना तो दूर रहा, एक-दूसरे का परिचय ही नहीं हो पाएगा यानि एक-दूसरे को आपस में जाना ही नहीं जा सकता।
शब्द तथा शब्द वाले को व्यक्ति और वस्तु के पीछे कभी भी किसी भी परिस्थिति में नहीं चलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति और वस्तु प्रधान कदापि नहीं बनना चाहिए। प्रयत्नपूर्वक परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म को जान-पहचान कर सदा-सर्वदा अपने ‘अहम्’ रूप जीव को परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द में विलय करके ‘तत्त्वमय’ होकर अवतारी की शरण-ग्रहण कर उसी के निर्देशन में अपने जीवन की सम्पूर्ण क्रिया-कलापों को समर्पित करके पाप-पुण्य से परे अर्थात् मुक्त जीवन जीना चाहिए।
शब्द अविनाशी और शब्द-ब्रह्म सदा-सर्वदा अमर होता है परन्तु व्यक्ति और वस्तु विनाशशील होती है। संसार में जो भी दृश्यमान है, दिखलाई देता है, वह सब ज्योति-पुंज का ही अपने स्वाभाविक गुण पृथकता और परिवर्तनशीलता के कारण नाना प्रकार की वस्तुओं और व्यक्तियों रूपी आकृतियों में परिवर्तित रूप ही है। जो स्वभावतः विनाशशील होता है।

शब्द अविनाशी परन्तु उसकी विनाशशीलता, व्यक्ति-वस्तुएं विनाशशील परन्तु उसकी अमरता 

सृष्टि की समस्त शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य की तीन प्रकार की स्थिति है अर्थात शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य की शक्ति-संचालन-प्रक्रियाएँ तीन भागों में विभाजित हैं, जिसमें से – प्रथम भाग में समस्त सृष्टि का विधान रहता है तथा दूसरे भाग से युक्त होकर सन्त-महात्मा तथा अंशावतारी तक का विधान होता है तथा तीसरी अथवा पूर्णतः भाग से परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर के कार्य करने का विधान होता है। प्रथम भाग ----
‘अहम्’ – सामान्य प्रक्रिया में समस्त सृष्टि ‘अहम्’ के द्वारा तथा ‘अहम्’ के अधीन ही क्रियाशील रहती है। ‘अहम्’ जो आनन्द प्रधान होता है, को कार्य करने हेतु एक मानव शरीर नियत हुआ है, जो ‘अहम्’ रूप शब्द-सत्ता और वस्तु रूप जड़-जगत् के मध्य दोनों के प्रतिनिधि के रूप में रहते हुये, दोनों के बीच सम्बन्ध कायम कर कर्म करने और भोग-भोगने का माध्यम बनता है, जिसमें ‘अहम्’ रूप जीव शब्द रूप सत्ता-सामर्थ्य का प्रतिनिधि होने के कारण अविनाशी होता है परन्तु शरीर वस्तु रूप ‘तेज-पुंज’ रूप शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जो स्वभावतः परिवर्तनशीलता, जो आभासित वर्तमान आकृति हेतु विनाशशीलता की प्रक्रिया के अन्तर्गत आती है। अब जब शरीर ‘अहम्’ शब्द प्रधान रहता है और वस्तु रूप जड़-जगत् को गौड़ रूप में साधन रूप में रखता है, वह व्यक्ति तो आनन्द से युक्त रहते हुये शरीर त्यागने पर स्वर्ग का अधिकारी होता है परन्तु वही शरीर जब व्यक्ति और वस्तु रूप जड़-जगत् प्रधान हो जाता है, तब उसका ‘अहम्’ शब्द रूप जीव मात्र शरीरमय भासने लगता है जिसके कारण आनन्द शून्य हो जाता है। परिणामतः आनन्द शून्य स्थान की पूर्ति हेतु संसार में नाना प्रकार से शरीरों और वस्तुओं से सम्बन्ध स्थापित करता रहता है। फिर भी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिए बेचैनी बढ़ती जाती है और नाना प्रकार की वैज्ञानिक शोध पद्धतियों को अपना-अपना कर शरीरमय से भी पतन रूप वस्तुमय हो जाता है, जो आनन्द तो आनन्द है, शारीरिक सुखों से भी वंचित हो जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि संसार के बीच वैज्ञानिक पद्धतियाँ विनाशक पदार्थों का निर्माण करना प्रारम्भ करने लगती हैं, जिससे चारों तरफ त्राहि-त्राहि माच जाती है। इस वर्ग के अन्तर्गत शिक्षित, विद्वान, तांत्रिक, मान्त्रिक, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, रामायणी, राजा, मन्त्री, अधिकारी कर्मचारी और समस्त ग्रहस्थ वर्ग आते हैं। विचारक और दार्शनिक भी इसी वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। दूसरा भाग ------

हंसो या सोsहं - ‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह दोहरी शक्ति-प्रयोग पद्धति है। समस्त योगी-यति-ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा अंशावतारी तक इसी पद्धति से कार्य करते हैं। सांसारिक लोग जब आनन्द युक्त ‘अहम्’ शब्दमय गतिविधियों से अलग पतित होकर ‘रूपमय’ ‘कामिनी-कंचन’ में फँसकर स्वयं को ‘शरीरमय’ मानते हुये सुखप्रधान शारीरिक पद्धतियों में फँसकर धन-दौलत, नौकरी, मकान, दुकान, बच्चे आदि व्यक्ति और वस्तुमय होकर आनन्द-शान्ति-शून्य पतित अवस्था रूप वस्तुमय रूप ले लेते हैं और आनन्द और शान्ति हेतु चारों तरफ नाना प्रकार से ‘कामिनी-कंचन’ रूप रूपमय पद्धतियों में दौड़ते हुये भी जब शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो पाती है, तब वह सांसारिक लोग योगी-महात्मा आदि के यहाँ पहुँचकर समस्त कामिनी-कंचन से दूर होने लगते हैं और उधर महात्माजन सभी लोगों को आज्ञा, आदेश और निर्देश आदि देकर वस्तु रूप संसार-कामिनी-कंचन के त्याग और अपने शरीर को महात्माओं की शरण में करने और स्वांस-प्रस्वांस साधना के माध्यम से ‘अहम्’ शब्द का ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति से मिलाकर हंसो-सोsहं शब्दमय तथा ध्यान द्वारा ज्योति में मिलाकर आनन्द और शान्ति से युक्त होकर कामिनी का त्याग तथा कंचन का महात्मा के चरणों में समर्पण कर-कर के आनन्द और शान्तिमय जीवात्मा रूप हंसो-सोsहं, शब्दमय होने का अभ्यास करते हैं, तो चिदानंद रूप तथा शरीर त्याग के बाद कल्याण रूप शिवलोक को प्राप्त होते हैं। संसार में साधना और ध्यान आदि से युक्त जितने भी साधक, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि हैं, इसी आध्यात्मिक मार्ग के पथिक होते हैं परन्तु बहुत से साधक आत्म-ज्योति को जान देख कर भी सांसारिक बने रहते हैं जिससे पथ-भ्रष्ट होकर समाज के बीच भ्रम को जन्म देते रहते हैं। 
तीसरा सम्पूर्ण भाग ---

आत्मतत्त्वम् – ‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह तीसरी शक्ति अर्थात् पूर्णतः सत्ता-सामर्थ्य-शक्ति प्रयोग-पद्धति है, जो मात्र परमेश्वर के लिए ‘सुरक्षित-कार्य-पद्धति’ होती है। सृष्टि के अन्तर्गत ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि किसी को भी यहाँ तक कि नारद, ब्रह्मा, शंकर जी, ईशु,, मुहम्मद साहब, गौतम बुद्ध, नानक, कबीर, महावीर जैन, आद्यशंकराचार्य, रामकृष्ण, विवेकानन्द, योगानन्द आदि किसी को भी ‘शक्ति-संचालन-प्रक्रिया’ के अन्तर्गत इस पद्धति की जानकारी नहीं थी क्योंकि केवल परम आकाश रूप परमधाम में वास करने वाले परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर का जब भू-मण्डल पर अवतरण होता है, तो एक मात्र उन्ही को इस पद्धति की यथार्थ जानकारी रहती है और मात्र वे ही इसके माध्यम से कार्य करते हैं क्योंकि उन्ही के अन्तर्गत समस्त देवगण, पृथ्वी आदि सृष्टि तथा वेद आदि समस्त विद्याएँ निहित रहती हैं, जो आवश्यकता अनुसार उन्ही के संकल्प से उत्पन्न होती रहती हैं जिसकी यथार्थतः समस्त जानकारियाँ ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ के अन्तर्गत उन्ही से मिलती है, किसी अन्य से नहीं। जड़-जगत्, समस्त जीव, जीवात्मा, आत्मा आदि समस्त सृष्टि की उत्पत्ति, यहाँ तक कि ‘आत्म-ज्योति’ रूप शब्द-शक्ति आदि की उत्पत्ति भी परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर से होती है तथा अंततः उन्ही में विलय भी हो जाती है। यह सारी जानकारी योग-साधना मार्ग अथवा मोहकम, मुतशाविहात् आदि इसी ‘तत्त्वज्ञान’ अथवा ‘हरुफ़मुकत्तआत्’ पद्धति में ही निहित रहती है, जिसको उत्कट जिज्ञासु मात्र ही श्रद्धा और पूर्ण समर्पण अथवा अल्लाहतला या दीन की राह पर मुसल्लम ईमान के साथ आत्म समर्पण के माध्यम से ही शान्तिमय ढंग से प्राप्त करते हैं। शेष लोगों में कुछ तो जड़ता-मूढ़ता वश देखते ही रह जाते हैं और कुछ इनके ‘दुष्ट-दलन-चक्र’ में पड़कर विनाश को प्राप्त होते हैं। अब विष्णु-राम-कृष्ण मात्र तीन ही इस वर्ग के हैं।
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म से ‘आत्म-ज्योति’ रूप शब्द-शक्ति उत्पन्न होकर दो प्रकार की गतिविधियों में विभाजित हो जाती है जिसमें पहली – ‘आत्म’ शब्द ‘एकोsहं बहुस्याम् वभूव’ रूप सिद्धान्त से ‘आत्म’ शब्द ही ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित होते हुये अनेकों भागों में विभाजित हो-हो कर शरीरों के साथ संयुक्त होकर शारीरिक शब्दों (नामों) में परिवर्तित हो जाता है। अब, शारीरिक शब्द (नाम) यदि शरीर रूप साधन के माध्यम से संसार में कर्म करते और भोग भोगते हुये अपनी पूर्ववत् स्थिति की जानकारी और यादगारी में रहते हुये सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्दमय रहते हुये इधर-उधर मात्र जीवों के सुधार (जानकारी) और उद्धार (यादगारी) हेतु भ्रमण करता रहता है। यह हुई शब्द की शाश्वतता अथवा अमरता की स्थिति। व्यक्तियों का शरीर जिस शब्द परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से ; या ‘आत्म’ से; या ‘अहम्’ से; या शरीर (शारीरिक नाम) से युक्त होकर कायम रहता है, उसी के सच्चिदानन्द से; या चिदानन्द से; या आनन्द से; या सुख से युक्त होकर शरीर पर्यन्त तक कायम रहते हुये, शरीर त्यागने पर, उसी परमानन्द और परमशान्ति से युक्त परमधाम को; कल्याण और शान्ति से युक्त शिवलोक को; आनन्द से युक्त देव लोक को; सुख-दुख से युक्त स्वर्ग-नरक को प्राप्त होते हैं अर्थात् जिस स्तर के शब्द से युक्त रहते हुये शरीर को रखेंगे और त्याग करेंगे उसी की गतिविधि में रहते हुये उसी क्षमतानुसार प्राप्ति होगी।
सुख- शरीर से, शरीर के लिए तथा शरीर तक अथवा इन्द्रियों द्वारा, इन्द्रियों के लिए तथा इन्द्रियों तक ही इच्छित विषयानुकूल इन्द्रियों, वस्तुओं और परिस्थितियों आदि से प्राप्त अनुकूलता ही प्रसन्नता या सुख होता है और प्रतिकूलता ही दुःख । यह शरीर या इन्द्रिय तथा वस्तु प्रधान होता है। इस वर्ग के लोगों को आनन्द, चिदानन्द की अनुभूति भी नहीं होती है और सच्चिदानन्द की जानकारी और बोध की बात तो इन लोगों को सुनने को भी नहीं मिलती है और अगर कहीं मिल भी गयी, तो ये ऐसे अभागे किस्म के लोग होते हैं कि कामिनी-कंचन के फँसाने अथवा व्यवस्था से इन्हे फुरसत ही नहीं मिलती है। यदि कहीं फुरसत भी मिल गयी, तो इन सबकी समझ में ही नहीं आती है। यदि समझ में आती भी है, तो ये इतने अधिक व्यसनी, लोभी, लालची और आसक्त होते हैं कि कामिनी और कंचन रूपी जड़-जगत् में फँसकर ये भी जड़ी हो जाते हैं। इनको अपना ही उत्थान करने में पीछे दिखाई देने लगता है कि परिवार की क्या दशा होगी, नौकरी समाप्त हो जाएगी आदि आदि। इन जड़ियों के लिए सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्द आदि में कोई अन्तर ही नहीं मालूम पड़ता है। कैसे मालूम पड़े ? जिसकी जानकारी ही नहीं उसका अन्तर कैसे मालूम हो? शिक्षित, विद्वान, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, मांत्रिक, तान्त्रिक, राजा, मन्त्री, अधिकारी, कर्मचारी तथा समस्त गृहस्थ वर्ग इसी में आते हैं। ये लोग सुख को ही आनन्द मान बैठते हैं। शरीर तथा शरीर से सम्बंधित ।
आनन्द - जीव से, जीव के लिए तथा जीव तक ही अथवा विचार द्वारा, विचार के लिए तथा विचार तक ही, इच्छित विषयानुकूल विचारों आदि से प्राप्त प्रसन्नता ही आनन्द है। सुख का विरोधी दुःख, दिन का विरोधी रात, सत्य का विरोधी असत्य, ग्रहण का विरोधी त्याग, आदि का विरोधी अन्त आदि-आदि सांसारिक वस्तुएं जड़ और चेतन तथा गुण और दोष आदि दो वस्तुओं और दो पद्धतियों जो आपस में विरोधी स्वभाव वाली होने के कारण द्विपक्षीय अथवा उभयपक्षीय होती हैं, परन्तु सांसारिकता से ऊपर उठकर ‘विचार के क्षेत्र’ में अपने शरीर को रख देने पर उभयपक्षीय गुण-स्वभाव समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि आनन्द का कोई विरोधी शब्द ही नहीं बना है। आनन्द हेतु व्यक्ति और वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है। मात्र विचार से ही प्राप्त हो जाता है। इस वर्ग के लोग अहंकारी होते हैं क्योंकि ‘अहम्’ रूप जीव ही इसका सर्वे-सर्वा आभासित होता है। इस वर्ग के लोग बात तो ज्ञानी की तरह करते हैं परन्तु कर्म जड़ी और आसक्त का होता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाले ये ही लोग होते हैं। इन लोगों को अपने समान कोई नहीं दिखलाई देता है जबकि आध्यात्मिक महात्माओं के सांमने इनकी कोई स्थिति नहीं होती है। इस वर्ग के लोग चिदानंद और सच्चिदानन्द के अनुभूति और बोध से बिल्कुल ही वंचित होते हैं। चूँकि आनन्द सांसारिक सुखों से ऊँचे स्थान का होता है। इसीलिए ये आनन्द को ही चिदानन्द और सच्चिदानन्द भी मान बैठते हैं। ये लोग अध्यात्मिकों की, यहाँ तक कि अवतार की भी निन्दा या आलोचना अथवा विरोध किए बिना नहीं मानते हैं। जबकि ये स्वयं निन्दित होते हैं। ये लोग स्वयं अहंकारी और आसक्त होते हुये भी अध्यात्मिकों और अवतारी को ही अहंकारी और आसक्त घोषित करने लगते हैं। जब अवतारी अपने अवतरण की बात बताने और जनाने-दिखाने तथा पहचान कराने लगते हैं, तो ये सब इतने बड़े अहंकारी और जड़ी होते हैं कि अवतारी के अवतरण प्रक्रिया को जानने-समझने और पहचानने की अपेक्षा व्यंग कसने लगते हैं कि ये (अवतारी) स्व घोषित भगवान हैं, आदि-आदि कह-कह कर हँसते रहते हैं क्योकि ये सब रावणवंशी शैतान होते हैं। इन सबको कौन समझाये कि ‘भगवान या अवतारी’ स्व घोषित ही होता है, पर घोषित नहीं। दुनिया में कौन है जो भगवान की घोषणा करेगा। भगवान ही एक ऐसा आश्चर्यमय परमपुरुष होता है जिसकी जानकारी भी बिना उसी के किसी को होती ही नहीं, तो घोषणा कौन करेगा ? यही कारण है कि भगवान या अवतारी जब होगा तब स्व घोषित ही होगा, पर घोषित नहीं। विचारक, दार्शनिक, शास्त्रीय-महात्मागण आदि आनन्द वाले विषय क्षेत्र के अन्तर्गत ही आते हैं। जीव तथा जीव से सम्बंधित ।
चिदानन्द – आत्मा से आत्मा में तथा आत्मा तक ही अथवा योग-साधना द्वारा योग-साधना में तथा योग-साधना तक ही चेतन-आत्मा से प्राप्त शान्ति और आनन्दानुभूति ही चिदानन्द है। सृष्टि के आदि में शंकर जी नारद जी से लेकर वर्तमान के योग-साधना से सम्बंधित समस्त आध्यात्मिक महात्मागण इसी वर्ग में आते हैं। जहाँ कहीं भी ध्यान साधना प्रधान बात सुनने-जानने में आए तुरन्त यह समझ लेना चाहिए कि वह साधक-सिद्ध, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया, अंशावतारी व आध्यात्मिक महात्मागण चिदानन्द से युक्त है। हालांकि यह बात भी सत्य है कि इन महात्माओं ने भी भ्रम एवं भूलवश तथा कुछ मिथ्याज्ञानाभिमान वश आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, हंस को ही परमहंस, नूर को ही अल्लाहतला घोषित कर दिया है। चिदानन्द के अन्तर्गत किसी भी अन्य व्यक्ति, वस्तु, इन्द्रियों आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यह चेतन आत्मा का मार्ग है, जिसमें जीव सांसारिक वस्तुओं और ऐंद्रिक विषयों तथा मन-बुद्धि और विचारों से ऊपर उठकर चेतन-आत्मा से मिलकर जीवात्मा (हंसो-सोsहं) रूप में कायम होकर चिदानन्द की अनुभूति करता रहता है और शरीर छोड़ने पर कल्याण रूप शिव लोक को प्राप्त होता है। आत्मा तथा आत्मा से सम्बंधित ।
सच्चिदानन्द – परमात्मा से, परमात्मा के लिए तथा परमात्मा के साथ सदा-सर्वदा के लिए अथवा परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् द्वारा, परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् के लिए तथा परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् मय होकर सदा-सर्वदा के लिए ही ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ के अन्तर्गत परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् मय एकत्व बोध अथवा बोधमय प्रसन्नता ही सच्चिदानन्द है। यह मात्र अवतारी तथा उसके द्वारा उपदिष्ट भक्तों और सेवकों के लिए ही सुरक्षित रहता है। यह सत्य प्रधान विधान होता है। यही पूर्ण होता है, जिसमें सुख, आनन्द, चिदानन्द तथा सच्चिदानन्द का सदा-सर्वदा वास होता है। जो जिज्ञासु जिस भाव से आते हैं, उनको उसी भाव के अनुसार ही सुख, आनन्द, चिदानन्द प्रदान करते हैं परन्तु जिनको कुछ भी नहीं चाहिए ऐसे निष्कामी जिज्ञासु भक्तों और सेवकों को सच्चिदानन्दमय करके अपने आश्रय में भक्ति और सेवा हेतु स्वीकार करके मुक्त पुरुष रूप में कायम रखते हैं और शरीर त्यागने पर सच्चिदानन्दमय परमानन्द में विलय कर लेते हैं। यहीं शाश्वत् शान्ति से युक्त मुक्ति और अमरता मिलती है।
अवतारी पुरुष जब लोगों को सुख रूप धन-जन प्रदान करते हैं, तो पाने वाला तो देखता ही है जैसे सुदामा आदि को, सामान्य जनमानस भी देखने लगता है। आनन्द प्रदान करते हैं तो यथार्थतः जो पाता है वही अनुभूति करता है, जैसे केवट आदि। जब चिदानन्द प्रदान करते हैं तो जो पाता है वह तो चिदानन्द की अनुभूति करता ही है, जो सम्पर्क में आता है उसको भी आभास होने लगता है जैसे देव आदि। और जब अपनी शरण में रखकर भक्ति और सेवा प्रदान करते हैं, तब भक्त और सेवक को अपने अन्दर तो कोई आनन्द या चिदानन्द की अनुभूति नहीं होती है परन्तु जैसे ही कोई संस्कारी जिज्ञासु श्रद्धापूर्वक मिलता है, तब उसको जनाने-समझाने रूप आनन्द और चिदानन्द तथा दोनों का उत्पत्ति केन्द्र रूप सच्चिदानन्द रूप अमृत घूँट रूप सत्संग पिलाने लगते हैं, तब समझ में आता है, अन्यथा नहीं। परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् तथा उससे सम्बंधित।
उपर्युक्त प्रकरणों को गहनता के साथ अध्ययन, पठन-पाठन एवं मनन कर यथार्थतः को समझने की कोशिश करें तो पूरा नहीं तो इतना तो अवश्य ही समझ में आ जाना चाहिए कि परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् से बिछुड़ने के बाद हम लोग यदि पुनः उत्कट जिज्ञासा पूर्वक श्रद्धालु भाव एवं पूर्णतः समर्पण भाव से उसी परमेश्वर को जान-देख-बातचीत करते हुये पहचान कर उन्ही के निर्देशन में नहीं किए, तो संसार में धन-जन आदि ‘रूप’ में फँसकर वस्तुओं के स्वाभाविक गुण रूप परिवर्तनशीलता के अनुसार बार-बार जनम-मरण, इतना ही नहीं, यह क्रम तब तक चालू रहेगा, जब तक कि परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म को जान-पहचान कर उन्ही को समर्पित हुए, स्वयं ही अपना सर्वस्व उन्ही को वापस करते हुये मुसल्लम ईमान के साथ उन्ही की सेवा-भक्ति में नहीं लगा देता। जो शरीर परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर को तत्त्वज्ञान द्वारा जान-पहचान कर अपने को तत्त्वमय रूप में कायम रहता है, तो विनाशशील उसकी शरीर रूप आकृति भी शब्द-ब्रह्म के साथ ही अमरता को प्राप्त होते हुये, मुक्त पुरुष के रूप में कायम रहता है। साथ ही विनाशशील रूप उसका स्थान भी अमरता को प्राप्त हो जाता है। जैसे राम और श्रीकृष्ण जी वाला शरीर तो आज भी अमर रूप में नाना मूर्तियों के रूप में कायम ही है, साथ ही साथ जितने लोगों ने इन लोगों के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करते हुये, समस्त कष्टों को झेलते हुये, उनके ‘धर्म संस्थापन’ एवं ‘दुष्ट-दलन-चक्र’ में साथ दिये, उनके शरीरों के रूप या आकृति भरी उन्ही के साथ-साथ अमरता के ‘रूप’ में नाना मूर्तियों के रूप में पूजनीय रूप में कायम हैं और रहेंगे भी। साथ ही साथ स्थान रूप अयोध्या, चित्रकूट, रामेश्वरम्, मथुरा, गोकुल, वृंदावन, कुरुक्षेत्र आदि भी शब्द-ब्रह्म तथा उसके अवतार रूप राम और कृष्ण के साथ ही साथ अमरता रूप में कायम हैं। जहाँ आज भी लोग मुक्ति हेतु जाकर और रह-रह कर अपने को धन्य समझ रहे हैं तथा उनके जनम-करम को रामलीला और कृष्णलीला के रूप में देख-सुन कर अपने को सुकृत समझ रहे हैं। वर्तमान अवतारी का जनम-करम ‘सत्यलीला’ होगा।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस


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