'हम' अथवा 'मैं' क्या है ?

‘हम’ अहम् का अपभ्रंश अर्थात् बिगड़ा हुआ उच्चारण युक्त ‘शब्द’ है, जो सदा-सर्वदा चेतनता से युक्त रहते हुए ही प्रयुक्त होता है। दूसरे शब्दों में, अहम् जिसका अर्थ अथवा हिन्दी उच्चारण ‘मैं’ होता है। अहम्, अहम् कहते-कहते जो संस्कृत का शब्द है हिन्दी में ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहा जाने लगा।
हम अथवा मैं न तो किसी शरीर को ही कहा जाता है और न हम कोई वस्तु या पदार्थ ही होता है। तब प्रश्न यह बनता है कि ‘हम’ शरीर है ही नहीं, कोई वस्तु भी नहीं है, तो है क्या ? विचार करने और शोध करने पर आभास हुआ कि ‘हम’ कोई शरीर या वस्तु नहीं है, यह तो शब्द-सत्ता से युक्त ‘अस्तित्व’ मात्र है, जो शरीरों से युक्त रहने पर प्रयुक्त होता रहता है। नासमझदारी के कारण अज्ञानी व्यक्ति शरीर को ही हम या मैं समझ बैठता है, जो भूल एवं भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं है।
‘हम’ या ‘मैं’ शरीर नहीं, बल्कि शरीर हमारा है- 
हम अथवा मैं न तो कोई शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है। ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ, यह तो एकमात्र ‘अस्तित्व’ है जो शब्द-सत्ता से युक्त होता है। शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ के चलते-फिरते घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग-भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र है
‘हम’ अथवा ‘मैं’ शरीर रूप विचित्र यन्त्र का चालक नियुक्त है। विचित्र यन्त्र रूप शरीर आत्म-शक्ति द्वारा चालित होता है जिसका संचालक या स्वामी एकमात्र परमधाम में बैठा हुआ परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर या सातवें आसमान पर बैठा हुआ अल्लाहतला है।
अतः आत्म-शक्ति द्वारा चालित शरीर विचित्र यन्त्र है जिसका चालक जीव नियुक्त है और तीनों – आत्म-शक्ति, शरीर रूपी विचित्र यन्त्र और जीव रूपी चालक का एकमात्र मालिक या संचालक केवल परमेश्वर ही हैं जो कि परमधाम में विराजमान रहते हैं और युग युग में विशिष्ट प्रतिनिधियों की करुण पुकार पर आते हैं और समस्त किस्म के मैं-मेरा, तू-तेरा रूप झगड़ों का रहस्य यथार्थतः जनाते, दिखाते, समझाते और पहचान या परख कराते हुये सत्य और न्याय के साथ ‘ठीक’ करते हैं।
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ परम आकाश रूप परमधाम में सदा-सर्वदा सर्वशक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् रूप में निवास करने वाले परमात्मा या अल्लातआला का प्रतिबिम्ब रूप एक उन्ही का प्रतिनिधि अथवा सामान्य कर्मचारी होता है।
‘हम’ या ‘मैं’ माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र तथा हित-सम्बन्धी आदि कदापि नहीं-
‘हम’ अथवा ‘मैं’ जब शरीर है ही नहीं, तो यह माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, मौसी-मौसा, हित-नात, सगा-सम्बन्धी आदि होने का सवाल ही नहीं बनता है। इतना ही ही नहीं, यथार्थतः देखा जाय तो ईं लोगों से ‘हम’ अथवा ‘मैं’ का कोई सम्बन्ध कायम रखने की बात ही नहीं होती क्योंकि ये उपरोक्त समस्त सम्बन्ध या रिश्ता-नाता मात्र शारीरिक होता है और जीव के लिए तो ये ऐसा ‘मीठा-जहर’ होते हैं कि न तो इन्हे छोड़ते बनता है और न रहते बनता है परन्तु अन्ततः यदि इस ‘मीठे-जहर’ रूपी मीठे लगाव को समाप्त नहीं किया गया, तो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा आध्यात्मिक आदि समस्याओं में से कुछ को भी किसी अन्य तौर-तरीके से सुलझाया नहीं जा सकता है।
ये सभी सम्बन्धी जन पहले तो यह बताएँ कि ये किसके माता-पिता हैं ? किसके भाई-बहिन हैं ? किसके पुत्र-पुत्री हैं ? आदि। ‘हम’ या ‘मैं’ से युक्त शरीर के, तो पता चलेगा कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ को तो जानते ही नहीं कि ‘हम’ या ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? क्या नाम है ? क्या रूप है ? अन्त में हमें कहाँ जाना है ? जब ये सब जानते ही नहीं, तो ‘हम’ या ‘मैं’ के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि कैसे हो सकते हैं ? और जब यह कहा जाय कि शरीर के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि हैं, तो अभी ‘हम’ या ‘मैं’ शरीर छोड़ दे तो ये लोग जो सबसे बड़े अपने बने हैं, वही सबसे पहले शरीर को आग में, जल में अथवा मिट्टी में डालकर समाप्त कर देंगे। तो इस प्रकार ये शरीर वाले भी अपने नहीं हुये। अर्थात् ‘हम’ अथवा ‘मैं’ और ‘हमार’ अथवा ‘मेरा’, दोनों दो बातें हैं। यदि एक ही मान लिया जाय तो इससे बढ़कर जड़ता और मूर्खता कोई नहीं होगी।
‘हम’, ‘हम’ के पिता-पुत्र या माता-पुत्री आदि नहीं हो सकते – 
यदि हम शरीर नहीं हैं, शरीर के अन्दर रहने वाले जीव मात्र हैं, तो समस्त शरीरों से तो एक ही आवाज ‘हम’ या ‘मैं’ निकलती है। चाहे वह शरीर स्त्री हो या पुरुष। प्रत्येक शरीर से जब पूछा जाता है कि आप कौन हैं तो सर्वप्रथम ‘मैं’ या ‘हम’ का उच्चारण होता है कि हम या मैं अमुक व्यक्ति हूँ। स्त्री भी अपने आप को हम या मैं कहती है और पुरुष भी अपने आप को हम या मैं कहता है, पुत्र भी, पिता भी, माता भी, पति भी, पत्नी भी, वृद्ध हो या जवान सभी अपने आप को मैं या हम ही कहते हैं। सभी शरीरों से केवल यही आवाज निकलती है। अब देखना तो यह है कि कौन पिता और कौन माता, कौन पुत्र और कौन पुत्री, कौन पति और है पत्नी है, अर्थात् कोई ‘हम’ किसी हम का माता, कोई ‘हम’ किसी हम का पिता, कोई ‘हम’ किसी हम का भाई, कोई ‘हम’ किसी हम की बहिन, कोई ‘हम’ किसी हम का पुत्र, कोई ‘हम’ किसी हम की पुत्री आदि कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।

 ‘हम और हमार’ तथा ‘तू और तोहार’
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब ‘हम और हमार’ तथा ‘तू और तोहार’ के विषय पर विचार-मन्थन, ध्यान-साधना तथा तत्त्वज्ञान पद्धति आदि के द्वारा जानकारी प्राप्त की जाय और उसे यथार्थतः कार्य रूप में लागू किया जाय, ताकि व्यक्ति और समाज आनन्द और शान्ति के साथ जीवन बसर करते हुये, चिदानंदमय अनुभूति में रहते हुये, अन्त में सच्चिदानन्द रूप परमशान्ति और परमानन्द में विलय कर लिया जाय। यही मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य है, यही परमशान्ति और परमानन्द है, यही अमरता की प्राप्ति है, यही कैवल्य या पद-निर्वाण भी है, यही मुक्ति और मोक्ष भी है।
‘हम’ और ‘तू’ ये दोनों शब्द, ‘शब्द-ब्रह्म’ तथा ‘शब्द-ब्रह्म’ से उत्पन्न ‘आत्म-ज्योति’ रूप शिव-शक्ति रूप शब्द-सत्ता ही शरीरों में प्रवेश करके ‘अहम्’ ‘शब्द’ में परिवर्तित होकर ‘हम’ अथवा ‘मैं’, ‘तू’ ‘तू’ करते हुये, अज्ञानी रूप में अपने को शरीरमय मानते और जड़ता एवं मूढ़ता के कारण शरीरमय ही रहते हुये, नाना प्रकार के शरीरों के नामों और रूपों में अपने ‘अहम्’ या ‘हम’ या ‘मैं’ को मिलाते हुये, शारीरिक नामों और रूपों को ही अपना नाम और रूप कहने तथा उसी के अनुसार व्यवहार करने लगते हैं, जिसके कारण एक ‘अहम्’ पहले तो दो शब्दों – ‘अहम्’ और ‘त्वम्’ हम और तू के माध्यम से उच्चरित होने तथा जिसमें प्रत्येक शरीर से अपने परिचय में तो ‘अहम्’ या हम या मैं बताया जाता है परन्तु सामने रहने वाले जिससे बात की जाती है उसके लिए ‘तुम’ या ‘तू’ शब्द उच्चरित करते हैं। स्त्री-पुरुष, लड़का-लड़की, आदि जो भी हो प्रत्येक शरीर से ही अपने परिचय के रूप में पूछे जाने पर ‘हम’ या ‘मैं’ ही आवाज पहले-पहल निकलती है, ‘तुम’ या ‘तू’ तो हर व्यक्ति ही अपने समक्ष उपस्थित व्यक्ति के लिए कहता है। तुम या तू कहलाने वाला व्यक्ति भी अपने द्वारा अपना परिचय बतलाने में अपने को हम या मैं ही बताता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपने को तुम या तू नहीं कहता अर्थात् प्रत्येक तुम या तू वास्तव में ‘हम’ या ‘मैं’ ही होता है। ‘हम’ या ‘मैं’ तथा ‘तुम’ या ‘तू’ न तो कोई अंग होता है और न शरीर ही, न कोई वस्तु होता है और न कोई स्थान ही, वह (‘हम’ और ‘तुम’) तो मात्र एक शब्द-सत्ता रूप में ‘अस्तित्व’ है। अस्तित्व का सीधा सम्बन्ध आत्म-ज्योति रूप शब्द-शक्ति से होता है। दूसरे शब्दों में ‘हम’ और ‘तुम’ का अस्तित्व आत्म-ज्योति रूप शब्द-शक्ति से ही सीधा सम्बंधित एक उसी अंशवत शब्द-सत्ता से ही ह। ‘हम’ और ‘हमार’ एक ही ‘हम’ का व्यवहार दो-रूप (डबल रोल) होता है। यथार्थतः तो ‘हम’ और ‘तुम’ दो होता ही नहीं, मात्र ‘एक’ ही है।
‘हम’ अस्तित्व से जिसका सम्बन्ध या लगाव हम के लिए होता है, वह व्यक्ति, वस्तु और स्थान ‘हमार’ कहलाता है और तुम के लाभ के लिए जो होता है, वह ‘तोहार’ कहलाता है यह ‘हम’ और ‘हमार’ तथा ‘तुम’ और तोहार मात्र एक भ्रम ही है क्योंकि जब तू भी ‘हम’ ही है, और हम को भी ‘तुम’ ही कहता है तो प्रत्येक तुम ‘हम’ और प्रत्येक हम ‘तुम ही है तो भेद किस बात का अर्थात् कोई भेद नहीं, कोई हिस्सा बँटवारा नहीं, तो फिर हमार और तोहार ही कहाँ रहा ? जब हमार और तोहार, हम और तुम से सम्बंधित होने मात्र से ही होना है और हम और तुम दो है ही नहीं। एक ही ‘हम’ का मात्र व्यवहार व्यवस्था हेतु दो रूप हैं अन्यथा दोनों एक ही है, तो हमार और तोहार भी दोनों एक ही हम का हुआ, जो समस्त शरीरों के भीतर कायम है। अन्ततः हमें यही कहना ही पड़ेगा कि समस्त शरीर एकमात्र ‘हम’ या ‘मैं’ द्वारा ही चालित होते हैं, अर्थात् सृष्टि में जीतने भी जीव या प्राणी हैं, सबके अन्दर से एकमात्र ‘हम’ या ‘मैं’ का उच्चारण होता है। तुम तो मात्र व्यवहार हेतु ही ‘हम’ का ही दूसरा रूप (डबल रोल) है।
चूँकि दो शरीरों को ज्ञान और बोध के अलावा अन्य किसी भी तरीके से ‘एक’ में मिलाया अथवा ‘एक’ बनाया नहीं जा सकता है, अर्थात् विचार, भाव और बोधत्व ‘एकरूपता’ के सिवाय शारीरिक विलय अथवा ‘एकत्व’ रूप एकरूपता का होना सम्भव ही नहीं होता है परन्तु हमार और तोहार ‘एकत्व’ हुए बिना शान्ति और आनन्द की प्राप्ति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, पाना या मिलना तो दूर है, क्योंकि पृथकता और परिवर्तनशीलता शोक और अशान्ति वाला होता ही है। पृथकता और परिवर्तनशीलता का स्वभाव कष्ट या शोक और अशान्ति प्रधान तथा स्थिरता और एकरूपता, आनन्द और शान्ति स्वभाव वाला होता है।

सम्पूर्ण मानव मात्र 'एक ही संयुक्त परिवार के सदस्य' - वसुधैव कुटुम्बकम् की सार्थकता -
संसार ही क्या सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही जितने भी प्राणी-मात्र होते हैं, सब के सब एक ही सूत्र- सोsहं-हंसो में गूँथे हुये मणि के दानों जैसे होते और रहते हैं और यह सोsहं-हंसो रूप सूत्र का सूत्रधार एकमात्र परमेश्वर या अल्लाहतला ही है।
सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड परमप्रभु रूप पिता और उन्ही की संकल्परूपा आदि-शक्ति रूप माता के संयोग से ही उत्पन्न सोsहं-हंसो रूप सुपुत्र व ‘अहम्’ रूप कुपुत्र तथा सोsहं-हंसो तथा ‘अहम्’ या मैं से सम्बंधित समस्त शरीर और सम्पत्ति, एक ही संयुक्त-परिवार तथा उसकी सम्पत्ति है।
संयुक्त परिवार में शरीर अनेक होते हुये भी एक ही विचार या भाव में कायम रहते हुये सम्पूर्ण-सम्पत्ति ही सबकी समान रूप में रहते हुये भी व्यक्तिगत रूप में पिता के संचालन में रहती है और पिता की व्यवस्था के अनुसार ही समस्त परिवार का कर्म एवं भोग निर्धारित रहता है। जो व्यक्ति पिता की विधि-व्यवस्था के अनुसार पिता के साथ आदर-सम्मान पूर्वक कार्य (सेवा) करता और भोग-भोगता है, वह तो सुपुत्र है, परन्तु पिता की व्यवस्था एवं विधानों से बिछड़े हुये अथवा काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा मत्सरता के वशीभूत विक्षुब्ध स्वार्थी व्यक्ति जब पिता की विधि-व्यवस्था के प्रतिकूल, अपनी स्वयं की विधि व्यवस्था कायम कर रहने लगते हैं, उनको कुपुत्र कहा जाता है। सुपुत्र पिता-माता के निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश में रहते हुये उनके प्रति आदर-सम्मान एवं उनकी विधि-व्यवस्था को एकमात्र जीवन का आधार मानते हुये सेवा तथा उसके फलों को उनको श्रद्धापूर्वक समर्पित करने तथा उन्ही की व्यवस्था में रहने में ही अपना आदर-सम्मान एवं कल्याण समझते हुये रहता है, वही सुपुत्र है एवं वह परिवार एक कुलीन एवं पवित्र परिवार है और समस्त परिवार की व्यवस्था हेतु स्वयं ही सेविका रूप में सारी कमियों की पूर्ति करती है क्योंकि यह परिवार सीधे विष्णु रूप पिता प्रधान परिवार होता है।
कुपुत्र काम, क्रोध, लोभ मोह एवं मत्सर आदि के वशीभूत होने के कारण स्वार्थी एवं अहंकारी के रूप में स्वयं की स्वार्थपरक विधि-व्यवस्था में रहते हुये मनमाना तरीके से कार्यों को करना, उसके फल को भी मनमाने तरीके से भोगना तथा सम्पत्ति को विभाजित कर-कराकर अपने स्वामित्व के अधीन करना चाहते हैं। इनको माता-पिता तथा परिवार के मान-सम्मान एवं विधि-व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता है, ये कामिनी और कंचन प्रधान होते हैं। द्वेष, घृणा, कष्ट, अशान्ति आदि इनकी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है। स्वार्थ एवं अहंकार के वशीभूत होकर ही अपना जीवन यापन करते-रहते हैं।
संयुक्त-परिवार में अनेक व्यक्ति के रहने के बावजूद भी सभी के सभी एक विचार, एक भाव, एक विधि-व्यवस्था में रहते एवं चलते हैं। माता-पिता एवं परिवार का हित सर्वोच्च होता है। वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि ही परमप्रभु के एक सूत्र सोsहं-हंसो द्वारा घुमाई जाती है। जो व्यक्ति परमप्रभु की विधि-व्यवस्था के अनुसार अपने को पूर्णतः कर देता है, उसकी सारी जिम्मेदारी परमप्रभु ही वहन करते हैं। परन्तु जो व्यक्ति प्रभु पर विश्वास न करके, जब अपने कर्म, पर विश्वास करके कार्य करता है, तब उसकी जिम्मेदारी उसको स्वयं वहन करनी पड़ती है। ऐसे व्यक्ति बराबर ही कमियों, परेशानियों आदि का शिकार हुआ करते हैं। ये सुख-सम्पदा आदि को ही शान्ति-आनन्द मान बैठते हैं।
समस्त मानव बंधुओं को इस बात पर अवश्य ही विचार करना चाहिए कि जब समस्त शरीरों से अपने परिचय में ‘हम’ या ‘मैं’ स्पष्टतया निकलता है, तब दूसरा कौन हुआ ? क्योंकि जिसको दूसरा या तुम या तू कहा जाता है, वह भी अपना पता ‘हम’ या ‘मैं’ कहकर ही बताता है अर्थात् समस्त शरीर एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ के हैं, तो समस्त सम्पत्ति भी ‘हम’ या ‘मैं’ की हुई। जिस प्रकार संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति को प्रत्येक सदस्य ही अपनी कहता व समझता हुआ व्यवहार करता है, जबकि व्यक्तिगत रूप से वह संयुक्त सम्पत्ति किसी की नहीं होती है। व्यक्तिगत एकाधिकार रूप से वह एक मात्र उस संयुक्त परिवार के प्रधान रूप पिता की ही होती है, जिस पर समस्त परिवार का भार होता है। ठीक इसी प्रकार सारी वसुधा ही एक संयुक्त परिवार है, जिसमें रहने वाले समस्त शरीर ही ‘हम’ से सम्बंधित हैं और जब समस्त शरीर ही ‘हम’ या ‘मैं’ वाले हैं तो समस्त शरीरों से सम्बंधित सम्पत्ति भी ‘हम’ या ‘मैं’ की हुई। ‘तू’ और ‘तोहार’ शब्द ही सारी बुराइयों की जड़ है। चोरी, डकैती, घूसखोरी, दुराचार एवं भ्रष्टाचार आदि इसी तू और तोहार के कारण ही होते हैं क्योंकि कोई ‘हम’ या ‘मैं’ किसी भी ‘हम’ या ‘मैं’ के साथ न तो चोरी कर सकता है और न डकैती, न दुराचार कर सकता है और न भ्रष्टाचार ही। जैसे किसी भी संयुक्त परिवार का कोई सदस्य एक-दूसरे के साथ चोरी, डकैती, घूसखोरी, दुराचार एवं भ्रष्टाचार आदि नहीं करता। हालाँकि ‘हम’ और ‘तुम’ तो हर शरीर के साथ ही एक-दूसरे के साथ कहता रहता है, परन्तु कोई किसी के साथ किसी भी प्रकार की बुराई करना तो दूर रहा, बुराई सोचता भी नहीं। ठीक इसी प्रकार हम लोग जब अपनी यथार्थ स्थिति को समझ लेंगे कि समस्त शरीर ही ‘मैं’ का है, ‘तुम’ या ‘तू’ का नहीं क्योंकि ‘तुम’ या ‘तू’ तो मात्र सब दूसरे को ही कहते हैं, तो समस्त बुराइयाँ उसी दिन समाप्त हो जाएँगी और जब सारी बुराइयाँ ही समाप्त हो जाएँगी तब आनन्द और शान्ति को कोई रोक नहीं सकता और सारी धरती पर अमन-चैन व्याप्त हो जाएगा। जब तक ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् समस्त वसुधा ही एक परिवार है और हम एक ही परिवार के सदस्य हैं, लागू नहीं होगा, तब तक कोई लाख सिर पटककर चाहे कि हम शान्ति और आनन्दमय जीवन यापन करें तो नहीं कर सकता है।
यह तभी होगा जब सत्य का राज्य हो, न्याय प्रधान नियम हो और नीति प्रधान व्यवहार हो तथा सद् ग्रन्थ ही नियम की किताब हो। तब जाकर शान्ति और आनन्दमय व्यक्ति और समाज होगा। कर्तव्य प्रधान व्यक्ति होना चाहिए, अधिकार प्रधान नहीं। यह बात यथार्थतः के साथ प्रत्येक को बताई एवं कार्य रूप में स्पष्टतः दिखलाई जाय कि अधिकार कर्तव्य का अनुगामी है, कर्तव्य अधिकार का नहीं। कर्तव्य के द्वारा प्राप्त अधिकार स्थिर, शान्त और आनन्दमय होता है परन्तु कर्तव्यविहीन अधिकार ही समस्त बुराइयों, दुराचारों एवं संघर्षों का आधार है। हम सभी को कर्तव्य प्रधान बनना चाहिए क्योंकि कर्म करने पर अधिकार रूप फल तो आना ही है, उसे कोई रोक ही नहीं नहीं सकता है।
अन्ततः ‘हम सभी एक हैं’ क्योंकि समस्त प्राणी मात्र ही खासकर मानव-शरीर, चाहे जितने भी हों, उसमें एक ही ‘हम’ वास करता है, इसीलिए ‘हम सभी एक हैं’ दूसरा कोई नहीं’। मानव हमारी जाति है। परमप्रभु हमारा पिता और उन्ही की संकल्परूपा आदि-शक्ति हमारी माता है। समस्त नर-नारी भाई-बहिन हैं। सम्पूर्ण धरती ही हमारा खेत है। सम्पूर्ण धरती की सम्पत्ति ही हमारी सम्पत्ति है। उसकी उचित रक्षा व्यवस्था हमारा कर्त्तव्य है। सत्य, न्याय एवं सद् भाव प्रेम ही हमारा जीवन है और सत्य, न्याय के साथ परमप्रभु की शरण में पूर्ण समर्पण भाव से ही कायम रहना हमारी पारिवारिकता की विधि-व्यवस्था है।

'हम' कहाँ से आया है ?
आदि से पूर्व, जब एकमात्र परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर ही थे। तब उन्हे सृष्टि रचना करने की बात सूझी और संकल्प किया, जिससे संकल्परूपा आदि-शक्ति उत्पन्न हुई। सृष्टि रचना हेतु परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से ‘आत्म’ शब्द अलग हुआ, जो ज्योति से युक्त होने के कारण ‘आत्म-ज्योति’ कहलाया। उसके बाद आत्म-ज्योति रूप आत्मा से ही जड़-चेतन रूप सृष्टि की रचना हुई, जो पिछले अध्यायों में आवश्यकता अनुसार वर्णित है। यहाँ पर अब हम लोग आत्मा-जीव-शरीर तथा शरीर-जीव-आत्मा के बीच सम्बन्धों को देखें और समझ-बूझ के साथ चलें।
शरीर सबका जो सबको दिखलाई दे रहा है। ‘हम’ जीव से युक्त रहने पर ही क्रियाशील रूप में जान पड़ता है। जैसे ही ‘हम’ जीव इस शरीर को छोड़ देगा, वैसे ही यह क्रियाहीन रूप में मुर्दा कहलाने लगता है। लोग जीव के शरीर छोड़ते ही मुर्दा घोषित कर आग में, पानी में अथवा मिट्टी में डालकर बर्बाद कर देते हैं। हालाँकि किसी भी शरीर का कोई दुश्मन या शत्रु आग, पानी एवं मिट्टी में नहीं डालता है, नजदीक से नजदीक अपने लोग ही डालते हैं। इससे स्पष्ट हो रहा है कि ‘हम’ जीव शरीर तो बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि शरीर में रहने वाला मात्र जीव है। अफसोस ही नहीं महान कष्ट की बात है कि आए दिन इन उपरोक्त समस्त क्रियाकलापों को जानते-देखते और समझते हुये भी व्यक्ति और समाज आज कितना जबर्दस्त जड़ी और मूढ़ हो गया है कि अपनी जड़ता एवं मूढ़ता को जानते और देखते हुये भी जड़ता को छोड़कर अपनी मूढ़ता के स्थान पर साधना द्वारा आत्म-ज्योति तथा तत्त्वज्ञान द्वारा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से मिलकर अपना उत्थान नहीं कर-करा लेता, जबकि एक दिन कामिनी-कंचन रूप समस्त जड़-पदार्थों को छोडना ही पड़ेगा क्योंकि मृत्यु देवता आपकी जड़ता और मूढ़ता पर दया नहीं दिखा सकता है, उसे तो अपने कर्तव्य-कर्म को ईमानदारी के साथ करना ही पड़ता है।
‘हम’ शरीरमय - ‘हम’ जीव किसी भी परिस्थिति में शरीर रहते स्वतन्त्र नहीं रह सकता है। या तो शरीरमय या आत्मामय होकर ही रहना पड़ता है। ‘हम’ जीव जब शरीरमय होकर शरीर और संसार की तरफ रुख करके कायम रहता है, तब शरीर शरीर और संसार के जड़ होने के कारण ‘हम’ जीव भी जड़ वाला ही हो जाता है, जिसके कारण शरीर और सम्पत्ति ही जीवन का प्रधान लक्ष्य बन जाता है, और फिर यह ‘हम’ जीव यह भी भूल जाता है कि वास्तव में ‘हम’ कौन है ? और कहाँ से आया है ? अन्त में कहाँ को जाना है ? इसका परिणाम यह होता है कि ‘हम’ जीव अपनी शान्ति और आनन्द को भी खो बैठता है, जिसकी खोज में संसार में क्या क्या नहीं करना पड़ता है ? लेकिन फिर भी प्राप्त नहीं होता।
‘हम’ आत्मामय- ‘हम’ जीव को जानकारी करते और देखते हुये अवश्य ही मालूम करना चाहिए कि जब ‘हम’ जीव किसी भी परिस्थिति में शरीर रहते, स्वतन्त्र रह ही नहीं सकते। किसी न किसी का होकर रहना ही पड़ेगा। तो क्यों इन शरीर और संसार रूपी जड़ में फँसकर बर्बाद हों, बल्कि जिस चेतन-आत्मा से आए हैं, क्यों न उसी को खोजकर उसी के साथ रहते हुये अपना जीवन-बसर करें, ताकि शान्ति और आनन्द को तो कौन पूछे, चिदानन्द से युक्त रहते हुये कल्याण को प्राप्त करें, ताकि संसार में कोई बर्बाद न कर बैठे। क्योंकि चेतन-आत्मा संसार से बहुत ही शक्तिशाली होती है, जिसकी शरण में जाने पर कोई सांसारिक व्यक्ति किसी भी प्रकार से हानि नहीं पहुँचा सकता है। साथ ही यह यादगारी बराबर कायम रहती है कि हम कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? और अन्त में कहाँ जाना है ? इसका परिणाम यह है कि ‘हम’ जीव जो मात्र आनन्दमय ही था, चेतन-आत्मा से मिलकर अपने पूर्ववत् आत्मा-जीव (सोsहं) से जीवात्मा (हंसो) रूप मय रहते हुये,
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर की प्रतीक्षा में कि परमधाम से जब कभी भू-मण्डल पर अवतरण हो, तब तुरन्त तत्त्वज्ञान पद्धति से जान-देख एवं बात-चीत करते हुये पहचान कर, सदा-सर्वदा हेतु उन्ही के शरणागत होकर मुसल्लम ईमान के साथ सेवा-भाव एवं सेवा कार्य में लगे रहें, यही जीवन का चरम और परम लक्ष्य होता है। जब तक यहाँ नहीं पहुँच जाता, तब तक जन्म-मरण रूप चक्कर कायम रहता है।
‘हम’ कहाँ रहता है ?
आत्मा जब परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से छिटककर शून्य आकाश में विचरण करते हुये, शरीर में स्वांस-प्रस्वांस रूप प्राण-वायु के साथ प्रवेश करती हुई कुण्डलिनी में पड़ती है, तब उसी में ‘अहम्’ रूप जीव में परिवर्तित होकर वहीं कायम रहती है। यही ‘अहम्’ जीव उच्चारण क्रम में संस्कृत से हिन्दी में ‘अहम्’ ही ‘हम’ होने लगा, जो आज भी है। इस प्रकार ‘हम’ जीव, शरीर स्थित मूलाधार-चक्र में स्थित शिवलिंग में लिपटी हुई सर्पिणी रूप में जो कुण्डलिनी है, उसी कुण्डलिनी में कायम रहता है। अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति ही ‘हम’ जीव का वास स्थान नियत है, यह वहीं रहता है।

 -------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस



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