सभी आध्यात्मिक गुरु शिष्यों के लिए


आत्मा ही परमात्मा नहींब्रह्म ही परमब्रह्म नहींईश्वर ही परमेश्वर नहीं

नूर ही अल्लाहतऽला नहींसोल ही गॉड नहींसोऽहँ-हँसो ही परम्तत्त्वं (भगवान्) नहीं

गुरु ही सद्गुरु भगवदावतार नहींआत्मा ज्ञान ही तत्त्वज्ञान नहीं । ब्रह्म ज्ञान ही तत्त्वज्ञान नहीं।

आप सभी गुरु जी तथाकथित सद्गुरु भगवान् जी तथा उनके शिष्य समाज को सादर भगवद् स्मरण ।
      
आज हमारे समाज में धर्म और भगवान् के उपदेश  व ज्ञान देने के लिए हजारों धर्म गुरु हैं जिनके लाखों शिष्य हैं । प्राय: सभी शिष्यों का अपने गुरु के प्रति, अगाद श्रद्धा-भाव है, सभी शिष्य अपने गुरु को भगवान् मान-समझकर अपने गुरु को तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु मानते हैं । गुरु जी लोग भी अपने महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए शिष्यों में भगवान् का अवतार बन बैठे हैं । आज धर्म क्षेत्र के प्राय: सभी गुरु और उनके शिष्य यही जानते-समझते हैं और घोषित करने में लगे हैं कि आत्मा ही परमात्मा है, ब्रह्म ही परमब्रह्म है, ईश्वर ही परमेश्वर है, नूर ही अल्लाहतऽला है, सोल ही गॉड है, सोऽहँ-हँसो ही परमतत्त्वं  भगवान् है, शिव ही भगवान् है, आत्मा ज्ञान-ब्रह्म ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है, गुरु ही भगवान् है, अध्यात्म ही तत्त्वज्ञान है । सभी के शरीरों में भगवान् विद्यमान है, भगवान् कण-कण और घट-घट वासी है ऐसी ही धारणा आज समाज में प्राय: सभी गुरु शिष्यों का है । वास्तव में ऐसी धारणा पूर्णतया अज्ञान मूलक आधी-अधूरी जानकारी की पहचान है । 

ऐसे लोगों को यह जान लेना चाहिए कि परमात्मा-परमेश्वर-भगवान्-खुदा-गॉड एक वह सर्वोच्च सत्ता-शक्ति है जो सम्पूर्ण सृष्टी ब्रह्माण्ड से परे विलक्षण जड-चेतन दोनों का उत्पत्ति कर्त्ता है जिससे सम्पूर्ण सृष्टि  ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति-स्थिति-संचालन-लय-विलय होता है । सृष्टि के परमपद सर्वोच्च पद पर पदासीन उस सर्वोच्च सत्ता का नाम ही परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् है । भगवान् न तो कण-कण में, न तो घट-घट में, न इस भू-मण्डल पर, न तो इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान है बल्कि वह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्ड से परे परम आकाश रूप परमधाम का वासी सबका मालिक है । जब जब इस भू-मण्डल पर धर्म और भगवान् के नाम पर अज्ञान आडम्बर फैलकर धर्म लुप्त होने लगता है, तब-तब वह परमआकाश रूप परमधाम निवासी भगवान् खुदा-गॉड इस भू-मण्डल पर अवतरित होकर धर्म संस्थापन, सज्जन संरक्षण, दुष्ट दलन करते-कराते हैं और अपने समर्पित-शरणागत भक्त-सेवकों को अपना परिचय-पहचान रूप अपना तत्त्व रूप तत्त्वज्ञान द्वारा प्रकट कर मुक्ति-अमरता का बोध करा देते हैं तब ये रहस्य स्पष्टता खुल जाता है कि न तो भगवान् कण-कण में, न तो घट-घट में विद्यमान है, आत्मा ही परमात्मा नहीं, ब्रह्म ही परमब्रह्म नहीं, ईश्वर ही परमेश्वर नहीं, नूर ही अल्लाहतऽला नहीं, सोल ही गॉड नहीं, गुरु ही भगवान् नहीं। इन सभी विषयों का रहस्य तब खुलता है जब स्वयं भगवान् इस धरती पर अवतरित होते हैं । 

आज कल के गुरु-शिष्य लोगों को ये पता होना चाहिए कि एक समय अनेक अवतार भगवान् नहीं होता बल्कि पूरे युग में एक समय एक ही शरीर अवतारी होता है जो तत्त्वज्ञान देकर मुक्ति अमरता का बोध करा देता है । जैसे पूरे सत्ययुग में भगवान् श्री विष्णु जी ने नारद-गरुड को वह तत्त्वज्ञान दिया और विराट भगवान् का साक्षात्कार कराकर मुक्ति अमरता का बोध कराया, पूरे त्रेता युग में भगवान् श्री राम जी ने लक्ष्मण-हनुमान-सेवरी-कागभुसुण्डि को तत्त्वज्ञान देकर मुक्ति अमरता का बोध कराया, पूरे द्वापर युग में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन-उध्दव-गोपियों को तत्त्वज्ञान देकर मुक्ति अमरता का बोध कराया । वही तत्त्वज्ञान वर्तमान में परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ने अपने भक्त-सेवकों को देकर मुक्ति-अमरता का बोध कराया ।

अर्थात् एक समय आत्मा ज्ञान देने वाले गुरु अनेक होते हैं मगर तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु भगवदावतार पूरे युग में एक ही होता है । गुरु आत्मा वाला होता है तो सद्गुरु परमात्मा वाला । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म ही परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म नहीं होता बल्कि परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् से उत्पन्न एक दिव्य ज्योर्तिमय शब्द ही आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म है जिसका दर्शन योग-साधना द्वारा किया जाता है जितने भी योगी-साधक-गुरु होते हैं ये सब यही मानते-समझते हैं कि योग-साधना के अवस्था में दिखाई देने वाला, दिव्य ज्योति आत्म ही परमात्मा है ये इनकी अज्ञानता है बल्कि परमात्मा किसी के शरीर में नहीं बल्कि अवतारी के शरीर में होता है जैसे पूरे सत्य युग में श्री विष्णु जी वाली शरीर में ही परमात्मा था, पूरे त्रेता में श्री राम वाली शरीर में ही परमात्मा था, पूरे द्वापर युग में श्री कृष्ण जी वाली शरीर में ही परमात्मा था फिर आज कलियुग में कैसे प्रत्येक शरीर में परमात्मा हो सकता है ? फिर आज कैसे गुरु ही भगवान् हो सकते हैं, ब्रह्मज्ञान ही तत्त्वज्ञान कैसे हो सकता है

वर्तमान के तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के अनुसार-
''आत्मा ज्ञान (अध्यात्म) वह पद्धति है, जिसमें जीव आत्मा से मिलकर आत्मामय होता है । आत्मा से सम्बन्धित क्रियात्मक अध्ययन पद्धति ही अध्यात्म (आत्मा ज्ञान) है । जीव का भूमध्य स्थित आज्ञा चक्र में पहुँचकर आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रह्म ज्योतिरूप ब्रह्म या आलिमे नूर या आसमानी रोशनी या नूरे इलाही या Divine Light  या Life Light  या जीवन ज्योति या सहज प्रकाश परम प्रकाश या भर्गो ज्योति या स्वयं ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार करना एवं श्वाँस-नि: श्वाँस के माध्यम से जपकर निरन्तर अभ्यास पूर्वक आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रह्ममय होने रहने का एक क्रियात्मक पद्धति ही आत्मा ज्ञान है । जिसके अन्तर्गत चार क्रियायें (अजपा जाप, अन्हद, खेचरी व ज्योति दर्शन होना) हैं।"
''तत्त्वज्ञान वह अशेष ज्ञान है जिसको जानने पाने के पश्चात् कुछ भी जानना पाना शेष नहीं रह जाता है। जिसमें सम्पूर्ण सृष्टी ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति-संचालन-लय-विलय का सरहस्य जानकारी दर्शन मुक्ति अमरता का बोध होता है जीव-आत्मा-परमात्मा अथवा रूह-नूर-अल्लाहतऽला अथवा सेल्फ-सोल-गॉड की परिपूर्णतम्, सैद्धान्तिक प्रायौगिक एवं व्यवहारिक जानकारी ही तत्त्वज्ञान कहलायेगा । उस तत्त्वज्ञान के दाता को ही सद्गुरु भगवदावतार कहते हैं।"

ब्रह्म ज्ञान ही आत्मा ज्ञान नहीं । आत्मा ज्ञान ही तत्त्वज्ञान नहीं बल्कि तीनों अलग-अलग पद्धति जानकारी है । 
शास्त्रों आदि सद्ग्रन्थों के माध्यम से जीव-आत्मा-परमात्मा अथवा जीव-ब्रह्म-परमब्रह्म अथवा जीव-ईश्वर-परमेश्वर अथवा रूह-नूर-अल्लाहतऽला अथवा सेल्फ-सोल-गॉड के सम्बन्ध में उत्कट एवं अनुमान परक जानकारी एवं समझदारी तो ब्रह्म ज्ञान है यानी ब्रह्म ज्ञान कहलायेगा । तथा योग-साधना या अध्यात्म के क्रिया-प्रक्रिया (अजपा-जप एवं ध्यान) आदि द्वारा अनुभूति परक जीव-आत्मा अथवा जीव-ब्रह्म अथवा जीव-ईश्वर अथवा रूह-नूर है । अथवा सेल्फ-सोल आदि का दरश-परश के साथ आपसी के एक-दूसरे से मिलने में होने वाली जानकारी आत्मा ज्ञान है या आत्मा ज्ञान कहलायेगा और परम्तत्त्वं रूप आत्मतत्तवम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वं रूप परमब्रह्म या परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी शरीर द्वारा तत्त्वज्ञान पध्दति के माध्यम से सत्य-स्पष्ट एवं यथार्थ जानकारी अनुभूति एवं बोध के साथ ही जीव-आत्मा-परमात्मा अथवा रूह-नूर-अल्लाहतऽला अथवा सेल्फ-सोल-गॉड की परिपूर्ण सैद्धान्तिक-प्रायौगिक एवं व्यवहारिक जानकारी ही तत्त्वज्ञान कहलायेगा । 

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