आदि के पूर्व में परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमब्रह्म परमेश्वर से छिटक या बिछुड़ कर सृष्टि में आनेवाली आत्म ज्योति अथवा दिव्य ज्योति चूँकि शब्द रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप से ही बिलग होती है । इसलिए आत्मा भी आदि में शब्द रूप ‘आत्म’ (सः) आकाश में विचरण करने लगी, तो इसके गतिशील होने में वायुतत्त्व की उत्पत्ति हुई, जो प्राण वायु कहलायी । पुनः ‘आत्म’ (सः) रूप आत्मा और प्राण वायु के बीच आपसी घर्षण में एक तेज (ज्योति) उत्पन्न हुई जो आत्मज्योति अथवा दिव्य ज्योति (Devine Light) कहलायी । तत्पश्चात् ‘वह’ (सः) ज्योति-मूर्त रूप (Form of Light) में परिवर्तित हो गयी, जो ज्योतिर्लिंग अथवा शिवलिंग कहलाया । चूंकि आदि मे जो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द ब्रह्म था । वह सामान्य शब्दो की तरह केवल शब्द मात्र नहीं था, बल्कि परमब्रह्म या परमेश्वर रूप सत्ता-सामर्थ्य से युक्त रहता है । इसीलिए वह मात्र शब्द न कहलाकर ‘वचन’ कहलाता है । उसी ‘आत्मतत्त्वम्’ रूप ‘वचन’ से ही ‘आत्म’ (सः) की उसी ‘वचन’ के संकल्प से उत्पत्ति होती है । इसीलिए ‘आत्म’ (सः) भी केवल शब्द नहीं रहता है बल्कि परमब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न ‘शक्ति’ से युक्त रहता है, जो कुण्डलिनी शक्ति है। चूँकि शब्द और शक्ति दोनों संयुक्त रूप में रहते हैं। इसीलिए शब्द ज्योतिर्लिंग अथवा शिवलिंग रूप में तथा संकल्प से उत्पन्न शक्ति जो इच्छा शक्ति मूर्त रूप में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में परिवर्तित होकर दोनों (ज्योतिर्लिंग या शिवलिंग और कुण्डलिनी शक्ति) संयुक्त रूप में एक साथ ही रहते हैं। संक्षिप्त रूप में ‘आत्म’ (सः) शब्द (नाम) तथा ज्योतिर्लिंग अथवा शिवलिंग रूप मूर्त आकृति (रूप)- शिव; और परमब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न आत्मा की शक्ति अर्थात् इच्छा-शक्ति (Will Power) ही शक्ति है। चूँकि दोनों ही संयुक्त रूप से स्थित रहते हैं, इसीलिए शिव-शक्ति दोनों का एक साथ ही प्रयोग होने लगा।
शब्द-ब्रह्म और उसकी शब्द-शक्ति
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द ब्रह्म सत्ता-सामर्थ्य रूप परमब्रह्म से युक्त रहता है। इसीलिए संक्षिप्ततः वह शब्द-ब्रह्म कहलाता है। ठीक इसी प्रकार परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द से आत्म (सः) रूप शब्द की उत्पत्ति होती है और सत्ता-सामर्थ्य के संकल्प से शक्ति की उत्पत्ति होती है और शब्द जो शक्ति से युक्त था, है और रहेगा भी, इसीलिए इसे शब्द-शक्ति कहा जाता है। चूँकि शब्द और शक्ति की उत्पत्ति क्रमशः शब्द और ब्रह्म से होती है, इसीलिए शब्द-शक्ति, शब्द-ब्रह्म की ही कहलाती है। अग्रलिखित प्रमाण देखें – ‘Beginning was the word, word with GOD and word was GOD’ - ‘Bible’
‘आदि में शब्द था, शब्द परमेश्वर के साथ था और शब्द (वचन) ही परमेश्वर था’ – बाइबिल
‘आदि में शब्द था, शब्द परमेश्वर के साथ था और शब्द (वचन) ही परमेश्वर था’ – बाइबिल
सृष्टि की उत्पत्ति – आदि के पूर्व में जब मात्र परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म ही थे। उन्हे संकल्प उत्पन्न हुआ कि कुछ ‘हो’। चूँकि वे सत्ता-सामर्थ्य से युक्त थे और उनके कार्य करने का माध्यम ‘संकल्प’ ही है, इसीलिए कुछ ‘हो’ संकल्प करते ही उन्ही शब्द-ब्रह्म का अंगरूप शब्द-शक्ति ‘सः’ (आत्म) छिटक कर अलग हो गयी, जो संकल्प रूपा आदि शक्ति अथवा मूल प्रकृति कहलायी। तत्पश्चात् शब्द-ब्रह्म के निर्देशन में ‘सः’ (आत्म) रूप शब्द-शक्ति को सृष्टि-उत्पत्ति सम्बन्धी कार्य-भार मिला अर्थात् सृष्टि (ब्रह्माण्ड) के सम्बन्ध में निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म स्वयं अपने पास तथा उत्पत्ति, संचालन और संहार से सम्बंधित क्रिया-कलाप ‘सः’ (आत्म) रूप शब्द-शक्ति के पास सौपा, परन्तु स्वयं को उसके इन क्रिया-कलापों से परे रखा।
शब्द-शक्ति रूप आदि शक्ति ही मूल प्रकृति कहलायी, क्योंकि प्रकृति की उत्पत्ति इसी आदि-शक्ति रूप में हुई। इसीलिए यह मूल प्रकृति भी कहलायी। पुनः आदि-शक्ति ने शब्दब्रह्म के निर्देशन एवं सत्ता-सामर्थ्य के अधीन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हे कार्य के निष्पादन हेतु इच्छा-शक्ति (Will Power) मिली। तत्पश्चात् आदि-शक्ति ने सृष्टि-उत्पत्ति की इच्छा की, तो इच्छा करते ही शब्द-शक्ति रूपा आदि-शक्ति का तेज दो प्रकार ज्योतियों में विभाजित हो गया; जिसमें पहली ज्योति तो आत्म ज्योति अथवा दिव्य ज्योति कहलायी तथा दूसरी ज्योति मात्र ज्योति ही कहलायी, अर्थात पहली ज्योति आत्मा और दूसरी ज्योति शक्ति कहलायी।
(1) आत्मा का संघटन रूप शरीर
पिछले पन्नों पर उल्लिखित इसी नामके शीर्षक का शेष भाग यहाँ से प्रारम्भ होता है-
शिव-शक्ति ही स्थूल शरीर रचना के मूल कारण होते हैं। इसीलिए इन्हें ‘मूल’ भी कहा जाता है। जिस स्थान पर ये निवास करते हैं उसका नाम भी इसी ‘मूल’ से संबंधित ‘मूलाधार-चक्र’ है।
शिव-शक्ति ही स्थूल शरीर रचना के मूल कारण होते हैं। इसीलिए इन्हें ‘मूल’ भी कहा जाता है। जिस स्थान पर ये निवास करते हैं उसका नाम भी इसी ‘मूल’ से संबंधित ‘मूलाधार-चक्र’ है।
‘सः’ (आत्म) रूप शब्द-शक्ति प्राण-वायु के माध्यम से आज्ञा-चक्र से होते हुये मूलाधार स्थित ‘मूल’ में सुषुम्ना के सहारे पहुँचकर ‘अहम्’ नाम और सूक्ष्म शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार यही ‘अहम्’ शिव रूप में और ‘सः’ शक्ति रूप में प्रयुक्त होने लगते हैं।
सामान्य जानकारी जो देवताओं की उत्पत्ति से सम्बंधित है उसमें भी यही नियम लागू होता है। जैसे आदि-शक्ति शिव को उत्पन्न करती है, शिव ही नहीं अपितु ब्रह्मा और विष्णु को भी उत्पन्न करती है तथा इन तीनों देवों ब्रह्मा, विष्णु, शंकर की सहयोगी रूप में सरस्वती, लक्ष्मी और उमा की भी उत्पत्ति भी वही (आदि-शक्ति) ही करती है।
यहाँ पर ‘सः’ (आत्म) रूप आत्मा या ब्रह्म से ही सूक्ष्म रूप में ‘अहम्’ रूप ‘शिव’ की उत्पत्ति होती है तत्पश्चात ‘सः’ शक्ति रूप में और ‘अहम्’ शिवरूप में दोनों ही मूलाधार चक्र में मूलतः सोsहं रूप में मिलकर संयुक्त रूप में निवास करते हैं, जिसका संकेत शिवलिंग जो कुण्डलिनी शक्ति रूप सर्पिणी जो शिवलिंग में साढ़े तीन फेरे के कुण्डल के आकार में लिपटी हुई दिखलायी देती है। इस प्रकार ‘सः’ रूप में सुषुम्ना के माध्यम से प्राण वायु के साथ प्रवेश करने वाली शक्ति और ‘अहम्’ जो अपान वायु के साथ उर्ध्व गति के रूप में ऊपर उठने (बाहर) वाली सत्ता शिव है। यही शक्ति संसार में स्त्री रूप और शिव पुरुष रूप धारण कर लेते हैं तत्पश्चात इच्छा और मैथुन क्रिया-प्रक्रियाओं से उत्पत्ति-पद्धति अर्थात स्थूल शरीर की उत्पत्ति की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
इस प्रकार सभी शरीरों में शिव और शक्ति का मिलन शाब्दिक रूप में होता रहता है। ‘सः’ नाम और ज्योतिष्मान रूप में शक्ति सूक्ष्म रूप में प्राण वायु के साथ प्रवेश करके आज्ञा चक्र से सुषुम्ना मार्ग से मूलाधार में स्थित मूल रूप में स्थित शिवलिंग में पहुँचकर ‘अहम्’ नाम के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यही क्रिया-प्रक्रिया सृष्टि के आदि में होती रही जो शिव-शक्ति का मिलन और उससे सृष्टि की उत्पत्ति होने लगी। आगे चलकर यह मिलन जब कल्याण हेतु शान्ति और आनन्द के साथ उर्ध्व-गति के रूप में किया जाता है तब तो इस क्रिया से युक्त व्यक्ति अपनी साधना प्रक्रिया की क्षमतानुसार शिव-शक्ति के ही सामर्थ्य-शक्ति के सक्षम बनता जाता है। यह क्रिया-प्रक्रिया ही योग-साधना है। इस क्रिया-प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रत्येक सिद्ध-साधक के शरीर में शिव-शक्ति का आपस में सूक्ष्म रूप में ही मैथुनी-मिलन होने लगता है जिसमें साधक को आनन्द और शान्ति की अनुभूति होने लगती है।, साथ ही साधक जो सांसारिक रूप में कार्य करते हुये जीव भाव में भ्रमण करता था, वही इसमें शिव भाव को प्राप्त होकर कल्याण को प्राप्त होता है। इस क्रिया-प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष को एक दूसरे की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस क्रिया में तो प्रत्येक शरीर ही अकेला ही पूर्ण होता है, जो अपने अन्दर साधना के द्वारा शिव-शक्ति मिलन कराते हुये ज्योतिष्मान् बनकर कल्याण रूप शिव बन जाता है।
पुनः आगे चलकर उपर्युक्त भाव के विपरीत यह (शिव-शक्ति) मिलन जब संतानोत्पत्ति हेतु सुख और वासनात्मक तृप्ति हेतु अधोमुखी गति के रूप में करना होता है तो सर्वप्रथम स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की अत्यावश्यकता होती है अर्थात एक-दूसरे की उपस्थिति के बगैर सन्तानोत्पत्ति वाले लक्ष्य की पूर्ति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यदि अपवाद स्वरूप बाल्मीकी और कुश की बात आ सकती है तो, यह ब्रह्म-तेज की बात है जिसको इन्कार नहीं किया जा सकता। इस सांसारिक व्यवस्था को कायम रखने हेतु सर्वप्रथम शिव और शक्ति को अपनी इच्छा-शक्ति (Will Power) का प्रयोग कर पुरुष रूप शिव और स्त्री रूपा शक्ति होकर ही सृष्टि रचना करना पड़ता है। शिव-शक्ति की इच्छा-शक्ति एक प्रकार की दैवी शक्ति होती है जो परमतत्त्वं(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म से हंसो रूप शिव-शक्ति रूप शब्द शक्ति को प्राप्त रहता है। शब्द-शक्ति का भी क्रिया-कलाप मनमाना नहीं हो सकता है क्योंकि यह भी मुख्यतः चार श्रेणियों में विभाजित हो कार्य सम्पादन करती है, जो अग्रलिखित है-
(क) संकल्प-शक्ति – यह परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म की अंगभूता, एकमात्र सेविका रूप आदि-शक्ति है जो एकमात्र परमब्रह्म परमेश्वर के साथ ही संयुक्त और सहयोगी के रूप में रहती और कार्य करती है। यही महामाया तथा मूल प्रकृति भी है। सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन और संहार के साथ ही साथ ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी उत्पत्ति भी इसी के द्वारा होती है। समस्त शक्तियों, अधिकारों और क्रियाओं से युक्त रहने के बावजूद भी यह सदा-सर्वदा और सभी अवस्थाओं में ही एकमात्र परमब्रह्म परमेश्वर की अनुगामिनी रूप में रहती है। इसका प्रत्येक कार्य संकल्प के आधार पर होता है तथा महाकारण के अधिकारों के रूप में रहती है।
(ख) इच्छा-शक्ति (Will Power) – यह परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म से उत्पन्न ‘सः’ (आत्म) रूप शब्द-शक्ति की अंगभूता कार्यकारी शक्ति है। शब्द-शक्ति अथवा शिव-शक्ति तथा इससे सम्बंधित योगी-यति, महर्षिगण तथा इससे युक्त देवी-देवतागण आदि सभी के समस्त कार्य इसी इच्छा-शक्ति के माध्यम से ही होते हैं। शब्द-ब्रह्म और संकल्प-शक्ति के प्रतिकूल इसका कोई कार्य नहीं होता, यदि चाहे भी तब भी प्रभावी नहीं हो सकती है, शेष सभी इसके प्रभाव से प्रभावित होते हैं। यह हमेशा ही कारण रूप में रहती है।
(ग) विचार-शक्ति (Thinking Power) – चौरासी लाख प्रकार की योनियों में मनुष्य योनि मात्र को कार्य करने के लिए विचार-शक्ति, शिव-शक्ति की तरफ से सूक्ष्म-शरीर रूप जीव को मिलती है। अर्थात जीव मात्र विचार-शक्ति के माध्यम से कार्य कर सकता है। सः (आत्म) रूप शब्द-शक्ति अथवा शिव-शक्ति से ही विचार-शक्ति की उत्पत्ति होती है और मात्र जीव को खास कर मनुष्य योनि में ही, किसी कारण विशेष से अन्य योनियों में भी, अथवा केवल मनुष्य योनि में ही विचार से कार्य करने हेतु यह विचार-शक्ति उपलब्ध होती है।
(घ) कार्यकारी-शक्ति (Working Power) – सृष्टि के अन्तर्गत जो चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं, प्रत्येक योनि की सभी आकृतियों (शरीरों) को ही यह कार्य-कारी शक्ति उपलब्ध हुई है। ऐसा कोई भी स्थूल-शरीर जो सूक्ष्म-शरीर या जीव से युक्त हो, नहीं होगा कार्यकारी शक्ति से युक्त न हो। मनुष्य योनि के अतिरिक्त सभी योनियों को मात्र कार्यकारी-शक्ति ही उपलब्ध होती है। मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जिसके पास कार्यकारी-शक्ति के साथ ही सूक्ष्म रूप से विचार करते हुये कार्य करने हेतु विचार-शक्ति भी उपलब्ध रहती है। इसीलिए विचारहीन मनुष्य को पशु, विचारयुक्त मनुष्य को विचारशील मानव तथा पूर्णतया विचार के माध्यम से कार्य करने वाले को विचारक (Thinker) और जिसके विचार समाज को दिशा-निर्देशन देने लायक हो जाते हैं उस विचार को दर्शन (Philosophy) तथा उसके विचारक को दार्शनिक (Philosopher) कहा जाता है। जो मनुष्य अपने विचार को आत्मा-प्राप्ति की साधना में विलय करता है वह साधक योगी तथा ऋषि-महर्षि कहलाता है और अन्त में जो व्यक्ति अपने विचार को परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर में विलय करता है वह ज्ञानी अथवा तत्त्वज्ञानी कहलाता है और युग-युग में जब-जब पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक आदि सृष्टि की समस्त व्यवस्थायें छिन्न-भिन्न हो जाया करती हैं, तब-तब परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म अपने परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होकर जिस शरीर को धारण करते हैं, उस शरीर के द्वारा अपने यथार्थ तत्त्व का ज्ञान, तत्त्वज्ञान के माध्यम से देते हैं, तब वह शरीर अवतारी अथवा तत्त्वज्ञानदाता कहलाता है। दूसरे शब्दों में –
(1) कार्यकारी शक्ति प्रधान शरीर पशु-पक्षी, कीट-पतंगे आदि होते हैं।
(2) विचार प्रधान शरीर – मानव होता है।
(3) योग-साधना प्रधान शरीर – योगी-यति, ऋषि-महर्षि, साधक, साधक होते हैं।
(4) ज्ञान अथवा तत्त्वज्ञान प्रधान शरीर – ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी होते हैं।
(2) विचार प्रधान शरीर – मानव होता है।
(3) योग-साधना प्रधान शरीर – योगी-यति, ऋषि-महर्षि, साधक, साधक होते हैं।
(4) ज्ञान अथवा तत्त्वज्ञान प्रधान शरीर – ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी होते हैं।
शिव-शक्ति सृष्टि में मानवोत्पत्ति करने की इच्छा करते ही शिव पुरुष रूप और शक्ति स्त्री रूपा स्थूल शरीर में अपने परिवर्तित हो गए। तत्पश्चात् शब्द-शक्ति रूप ‘सः’ (आत्म) से युक्त स्थूल शरीर जब आपस में एक-दूसरे (पुरुष-स्त्री) मैथुनी मिलन करते हैं तो सांसारिक भाव में ‘सः’ रूप आत्मा सुषुम्ना से आज्ञा-चक्र से होते हुये मूलाधार में जाकर मूल में ‘अहम्’ रूप में परिवर्तित हो जाती है तत्पश्चात बार-बार घर्षण से कुण्डलिनी शक्ति की जागृति अधोमुखी रूप में हो जाती है जिसके कारण ‘अहम्’ रूप जीव शुक्र (Semen) रूप में परिवर्तित हो जाती है। पुनः शुक्र कोष (Cell) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् कोषकीय शुक्र बीज (Sperm) के सहारे पिता रूप पुरुष से माता रूप स्त्री के गर्भाशय में मैथुन के माध्यम से प्रविष्ट कर जाता है। चूँकि गर्भाशय एक प्रकार का बीज के विकास का स्थान होता है। इसलिए बीज वाला शुक्र जो कोष रूप में था, अनुकूल स्थान पाकर शरीर का रूप धारण कर लेता है अर्थात शरीर रूप में विकसित हो जाता है। जिस प्रकार उर्वरा खेत को पाकर बीज पौधा तथा वृक्ष बन जाता है। उसी प्रकार शुक्र से युक्त बीज से शरीर बन जाता है और बीज से वृक्ष पुनः वृक्ष से बीज पुनः बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होता जाता है, ठीक यही क्रिया शरीर के लिए भी है।
मानव शरीर एक विचित्र आकृति
मानव शरीर सृष्टि के अन्तर्गत उत्पन्न चौरासी लाख प्रकार की आकृतियों में सर्वोत्कृष्ट और सर्वोत्तम किस्म की एक विचित्र आकृति है जिसमें ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं की संक्षिप्त आकृति प्रतीकात्मक रूप में समाहित रहती हैं। यह पूरे ब्रह्माण्ड के प्रतीक के रूप में एक पिण्ड है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड परमेश्वर का एक प्रकार का लीला क्षेत्र होता है, ठीक उसी प्रकार ‘पिण्ड’ जीवात्मा का क्रीडा-क्षेत्र है। दूसरे शब्दों में, पिण्ड ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व और जीवात्मा, परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हुये संयुक्त रूप में एक-दूसरे के सहारे क्रियाशील रूप में कायम रहते है। अब इधर देखें कि योगी और ज्ञानी में क्या अन्तर होता है ?
मानव शरीर सृष्टि के अन्तर्गत उत्पन्न चौरासी लाख प्रकार की आकृतियों में सर्वोत्कृष्ट और सर्वोत्तम किस्म की एक विचित्र आकृति है जिसमें ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं की संक्षिप्त आकृति प्रतीकात्मक रूप में समाहित रहती हैं। यह पूरे ब्रह्माण्ड के प्रतीक के रूप में एक पिण्ड है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड परमेश्वर का एक प्रकार का लीला क्षेत्र होता है, ठीक उसी प्रकार ‘पिण्ड’ जीवात्मा का क्रीडा-क्षेत्र है। दूसरे शब्दों में, पिण्ड ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व और जीवात्मा, परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हुये संयुक्त रूप में एक-दूसरे के सहारे क्रियाशील रूप में कायम रहते है। अब इधर देखें कि योगी और ज्ञानी में क्या अन्तर होता है ?