आज्ञा-चक्र आज्ञा प्रधान विधान


आज्ञा-चक्र आज्ञा प्रधान विधान होता है। इसका यथार्थ भाव यह होता है कि जब तक कि कोई योगी-यति, ऋषि-महर्षि, अथवा सन्त-महात्मा इस चक्र की जानकारी नहीं देते हैं, तब तक सामान्य मानव इसकी कोई जानकारी नहीं कर पाता है, क्योंकि भौतिक संसार में सांसारिक जीवन यापन के अन्तर्गत इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यही कारण है कि मानव अपनी उत्कृष्टतम् मानव योनि को चेतन-प्रधान बनाने के बजाय जड़ प्रधान बना डालता है। जबकि जड़-प्रधान जीवन तो पशुओं, पक्षियों, कीट-पतंगों आदि के लिए बना है परन्तु मनुष्य भी भोग प्रधान बनते-बनते पशु-पक्षी, कीट-पतंगों आदि के समान ही जुटाना-खाना-पखाना-सोना और बच्चे पैदा करना ही अपना जीवन लक्ष्य बनाकर उसी में फँस कर समाप्त हो जाते हैं।
परन्तु जो संस्कारिक आदमी होगा, वह इस प्रकार के पशुवत् जीवन में विश्वास नहीं करता है, बल्कि शास्त्रों का अध्ययन कर, सन्त-महात्माओं की शरणागत होकर उन्ही की आज्ञा में अपने शरीर को लगाकर आनन्दमय और चिदानंदमय जीवन भी जीता है। समाज में आदर का पात्र भी रहता है। यत्र-तत्र सम्मानित भी रहता है और शरीर छोड़ने पर चिदानंदमय शिवलोक को भी प्राप्त होता है।
‘टीका’ – कर्मकांडी, योगी तथा ज्ञानी की दृष्टि में
टीका का अर्थ टिकना या ठहरना होता है परन्तु जितने भी कर्मकांडी, पुजारी, साधु, पण्डित, रामायणी आदि हैं वे इसकी यथार्थता पर ध्यान न देकर अर्थात स्वयं अपने मानव जीवन के चरम लक्ष्य रूप परमब्रह्म को जान-देख पहचान कर उनकी शरणागति में पूर्ण समर्पण भाव से टिके रहने पर ध्यान न देकर मात्र दिखाने हेतु कि मैं पुजारी हूँ, मै साधु हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं कर्मकांड का अच्छा जानकार हूँ , टीका करने लगते हैं। परन्तु इन लोगों को कौन समझाये कि ये अपनी ही जड़ता के इतने बड़े शिकार हो गए हैं कि मात्र दिखाने हेतु टीका करने लगते हैं। इसी को पाखण्ड या आडम्बर तथा उससे युक्त व्यक्ति को पाखण्डी या आडम्बरी कहते हैं। आडम्बरी चन्दन और रोरी को टिकाता है।
टीका की यथार्तता योगी-महात्माओं के दृष्टिकोण में यह है कि साधनाभ्यास करते हुये साधक अपने ध्यान को आज्ञा-चक्र (भ्रू-मध्य) में टिकाता रहता है और ध्यान करते-करते जब जीव गुरु आज्ञानुसार आज्ञा-चक्र मेंआत्मा से मिलकर वहीं टिक या ठहर जाता है, तब जनमानस यही कहने लगता है कि अमुक साधक योग-साधना में टिक गया और वह अब योगी महात्मा और सिद्ध कहलाने लगता है। योगी साधक अपने जीव को टिकाता है।
टीका की यथार्तता ज्ञानियों के दृष्टिकोण में यह है कि परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमब्रह्म परमेश्वर को तथा उसके अवतार रूप अवतारी को यथार्थतः तत्त्वज्ञान द्वारा जान-देख बात-चीत करते हुये पहचान कर मानव जीवन का चरम या परम लक्ष्य समझते हुये; साथ ही अपने जीवन को धन्य मानते हुये कि जन्म-जन्मांतरों के पुण्य रूपी संस्कार के एकत्रित होने, तत्पश्चात् प्रभु की विशेष कृपा के कारण मनुष्य शरीर पाकर उसमें भी परमप्रभु की असीम अहैतुकी कृपा के कारण तो वह प्रभु अपनी शरण में स्वीकार कर अपने तत्त्व को प्रकट किया है। इसीलिए अब हमें परमप्रभु का पीछा नहीं छोड़ना चाहिए। इस प्रकार जब जिज्ञासु ज्ञान पाकर ज्ञानी बनकर सदा-सर्वदा के लिए परमप्रभु की शरण में अपने सर्वस्व जीवन को अर्पित करके टीका रहता है; वही वास्तव में ज्ञानी अथवा तत्त्वज्ञानी है। ज्ञानी अपने तन-मन-धन सहित जीव को सदा-सर्वदा अवतारी के चरण में समर्पित कर उनकी चरण-रज को अपने माथे पर लगाता है जो बाद में टीका कहलाने लगता है।
पत्नी और भक्त एक ही समान – अतः कर्मकांडी चन्दन या रोरी को अपने ललाट पर टिकाता है जिसका अर्थ लोगों की दृष्टि में अपने को पुजारी, साधु, पण्डित आदि बनावटी भक्त दिखाना होता है, परन्तु अन्दर जब ज्ञान ही नहीं है कि परमात्मा क्या है ? कैसा है ? कहाँ रहता है ? कैसे मिलता है ? आदि आदि तो वह भक्त भी नहीं हो सकता । जैसे कुंवारी कन्या जिसको अपने पति के विषय में कोई जानकारी नहीं है, वह कभी भी पत्नी नहीं कहला सकती। यदि शौकिया टीका करती है तो वह दुष्ट है और उसका यह कार्य मात्र फैशन है जो मात्र दिखाने के लिए है। ठीक यही हाल अज्ञानी टीका करने वालों का है। यही कारण है कि टीका, पाखण्ड और आडम्बर कहलाने लगा। परन्तु कोई स्त्री यदि टीका करती है जिसकी माँग भी पति ने पूरी कर दी हो अर्थात् माँग पूर्ति रूप माँग में सिन्दूर भी दिखाई देता हो, तब वास्तव में वह स्त्री किसी की पत्नी है। उसकी टीक अति आवश्यक और यथार्थ है। ठीक इसी प्रकार कोई ज्ञानी भक्त यदि अवतारी पुरुष की चरणरज का ललाट पर टीका करता हो, जिसकी माँग भी सद् गुरु ने पूरी कर दी हो तब वास्तव में वह ज्ञानी है और उसका टीका यथार्थ है। जिस प्रकार शादी-शुदा स्त्री यदि टीका न करे तो यह अशुभ माना जाता है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान से युक्त ज्ञानी यदि भगवान के चरणरज का टीका नहीं करता है तो यह अहं भाव से युक्त माना जाता है। जिस प्रकार पत्नी एकमात्र पति की अनुगामिनी होती है तो वही पतिव्रता नारी कहलाती है उसी प्रकार यदि ज्ञानी-भक्त एकमात्र भगवान्(साकार) रूपी अवतारी का अनुगामिनी होता है वही अनन्य भक्त है। जो पत्नी यदि सही पत्नी होगी, तो उसे लाख दुनिया कुछ कहे परन्तु उसे अपने पति की अनुगामिनी रूप में पीछे-पीछे चलने में लज्जा तो नहीं होती अपितु अत्यन्त प्रसन्नता, आनन्द की अनुभूति होती रहती है, ठीक इसी प्रकार ज्ञानी भक्त यदि सच्चा भक्त होगा तो दुनिया लाख कुछ कहे, उसे ज्ञानदाता भगवान के अनुगामिनी के रूप में पीछे-पीछे चलने में लज्जा तो नहीं ही लगेगी अपितु अत्यन्त प्रसन्नता के साथ ही परमानन्द का बोध होता है। परन्तु भगाई हुई या फंसाई हुई पत्नी सदा लज्जा और भय की अनुभूति करती रहती है, जैसे कपटी शिष्य सर्वदा अपने सद् गुरु के पीछे-पीछे चलने में समाज में लज्जा और भयवश उदासीन रहता है। “साँच में आँच कैसी ?”
(7) सहस्रार-चक्र – सहस्र पंखुणियों वाला यह चक्र सिर के उर्ध्व भाग में नीचे मुख करके लटका हुआ रहता है, जो सत्यमय, ज्योतिर्मय, चिदानंदमय एवं ब्रह्ममय है, उसी के मध्य दिव्य-ज्योति से सुशोभित वर और अभय मुद्रा में शिव रूप में गुरुदेव बैठे रहते हैं। यहाँ पर गुरुदेव सगुण साकार रूप में रहते हैं। सहस्रार-चक्र में ब्रह्ममय रूप में गुरुदेव बैठकर पूरे शरीर का संचालन करते हैं। उन्ही के इशारे पर भगवद् भक्ति भाव की उत्प्रेरणा होती है। उनके निवास स्थान तथा सहयोग में मिला हुआ दिमाग या मस्तिष्क भी उन्ही के क्षेत्र में रहता है जिससे पूरा क्षेत्र एक ब्रह्माण्ड कहलाता है, जो शरीर में सबसे ऊँचे सिर उसमें भी उर्ध्व भाग ही ब्रह्माण्ड है। योगी-यति, ऋषि-महर्षि अथवा सन्त-महात्मा आदि जो योग-साधना तथा मुद्राओं से सम्बंधित होते हैं, वे जब योग की कुछ साधना तथा कुछ मुद्रा आदि बताकर और कराकर गुरुत्व के पद पर आसीन हो जाते हैं उनके लिए यह चक्र एक अच्छा मौका देता है, जिसके माध्यम से गुरुदेव लोग जितने भी योग-साधना वाले हैं अपने साधकों को पद्मासन, स्वास्तिकासन, सहजासन, वीरासन आदि आसनों में से किसी एक आसान पर जो शिष्य के अनुकूल और आसान पड़ता हो, पर बैठा देते हैं और स्वांस-प्रस्वांस रूप प्राणायाम के अन्तर्गत सोsहं का अजपा जाप कराते हैं। आज्ञा-चक्र में ध्यान द्वारा किसी ज्योति को दर्शाकर तुरन्त यह कहने लगते हैं कि यह ज्योति ही परमब्रह्म परमेश्वर है जिसका नाम सोsहं तथा रूप दिव्य ज्योति है। शिष्य बेचारा क्या करे ? उसको तो कुछ मालूम ही नहीं है, क्योंकि वह अध्यात्म के विषय में कुछ नहीं जानता। इसीलिए वह उसी सोsहं को परमात्मा नाम तथा ज्योति को परमात्मा का रूप मान बैठता है। खेचरी मुद्रा से जिह्वा को जिह्वा मूल के पास ऊपर कण्ठ-कूप होता है जिसमें जिह्वा को मूल से उर्ध्व में ले जाकर क्रिया कराते हैं, जिसे खेचरी मुद्रा कहते हैं, इसी का दूसरा नाम अमृत-पान की विधि भी बताते हैं। साथ ही दोनों कानों को बंदकर अनहद्-नाद की क्रिया कराकर कहा जाता है कि यही परमात्मा के यहाँ खुराक है, जिससे अमरता मिलती है और यही वह बाजा है जो परमात्मा के यहाँ सदा बजता रहता है। यह ऐसा बद्तर जमाना हो गया है कि आध्यात्मिक गुरु भी शिष्यों के अनुकूल चलने लगे हैं, जो इस युग की घोर भ्रष्टता का सूचक है। यही विनाश का अकाट्य प्रमाण है। आध्यात्मिक गुरुओं को कभी भी शिष्यों के अनुकूल नहीं चलना चाहिए बल्कि शिष्यों को अपने अनुकूल ही ले चलना चाहिए। परन्तु वर्तमान घड़ी विनाश की घड़ी है। यही कारण है कि सबकी माटी और गति ही यथार्थता के प्रतिकूल हो गई है। सत्य के स्थान पर असत्य का, न्याय पर अन्याय का, अध्यात्म और विज्ञान में मेल या अनुकूलता के स्थान पर विरोधी या प्रतिकूलता का, धर्म पर अधर्म का, साथ ही सज्जनों पर अत्याचारियों का प्रभावी होना ही अवतार के प्रमाण को और ज्यादा प्रभावी रूप में पुष्ट करता है। इन्ही प्रतिकूल परिस्थितियों के अन्तर्गत आध्यात्मिक गुरु भी अब शिष्यों के कल्याण को ताक पर रखकर मात्र अपने पीछे धन और जन के प्रदर्शन में लग गए हैं और ऐसे गुरुओं से शिष्यों में भी काफी प्रसन्नता छायी हुई है क्योंकि गुरुदेव लोग अब इन लोगों के अनुकूल चलने लगे हैं। शिष्यों को अपनी मुक्ति, अपने कल्याण की बातों से अपनी मनमानी छूट अधिक पसन्द आने लगी है। यही कारण है कि आध्यात्मिक गुरुदेव लोग अपने शिष्यों और अनुयायियों को उपर्युक्त आत्मा की प्रक्रिया मात्र को ही बताकर उसी को परमात्मा का तत्त्वज्ञान कह-कह कर आत्मा को ही परमात्मा घोषित कर कराकर स्वयं अवतारी बन बैठे हैं। आध्यात्मिक गुरु लोग अपने शिष्यों और अनुयायियों को आज्ञा-चक्र पर जहाँ आत्मा का ही वास होता है, ध्यान कराकर कह देते हैं कि यहाँ तक तो हमने पहुँचा दिया, अब साधनाभ्यास द्वारा सहस्रार में बैठे हुये सगुण-साकार रूप गुरुदेव को ध्यान में देखें। वास्तविकता तो यह है कि उन गुरु देव लोगों को भी सहस्रार की विशेष जानकारी नहीं है, तो उनके शिष्य लोग क्या जानेंगे ? आध्यात्मिक गुरुदेव जी लोग अपने शिष्यों को ध्यान द्वारा आज्ञा-चक्र में आत्म-ज्योति को तो दर्शा देते हैं परन्तु सहस्रार में कैसे पहुँचा जाय ? यह यथार्थतः कोई भी नहीं बताता है। यही कहकर टाल देते हैं कि ध्यान करके सहस्रार को कभी भी नहीं जाना जा सकता है। यथार्थतः सत्य बात तो यह है कि सहस्रार योग का विषय ही नहीं है, फिर योगी-महात्मा इसे बता ही कैसे सकते हैं ? अर्थात नहीं बता सकते हैं। योग की सारी जानकारी तो आज्ञा-चक्र में आत्मा से मूलाधार स्थित जीव पुनः मूलाधार स्थित जीव से आज्ञा-चक्र स्थित आत्मा तक ही होती है।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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