आत्म-ज्योति का रहस्य

सर्वप्रथम सृष्टि के आदि में परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमेश्वर या परम-सत्ता से ‘आत्म’ रूप आत्मा रूप एक चेतन-ज्योति छिटकी जो शून्य आकाश में ‘सः’ शब्द तथा ज्योति में परिवर्तित हो गयी। जिस प्रकार पैदाइश दर पैदाइश क्रम रूप में रूप तो आदमी का ही रहता है, चाहे पितामह का शरीर हो या पिता का, चाहे पिता का हो या पुत्र का, परन्तु नाम बदलता रहता है। ठीक इसी तरह परमतत्त्वं रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ से छिटकी (निकली) हुई ‘आत्म’ नाम और ज्योति रूप दोनों मिलकर आत्म-ज्योति हुई। यह आत्म-ज्योति तब तक शून्य आकाश में आत्म-ज्योति ही रहती है जब तक कि कोई उसे देख-जान नहीं लेता। जैसे ही लोगों ने उस आत्म-ज्योति को देखा, तो नाम (शब्द) तो दिखायी नहीं देता है, दिखायी देता है केवल रूप। जब लोग रूप से सम्बन्ध जोड़ते (मिलते) हैं, तब उसी के द्वारा उसके अपने नाम (शब्द) को जाना जाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी भी व्यक्ति से मिलता है, तो मिलन में पहले नाम (शब्द) नहीं मिलता, रूप मिलता है और जब रूप मिल जाता है, तब वह रूप ही स्वयं ही अपना नाम (शब्द) तथा पता (कहाँ से आया है, कहाँ ठहरा है और किसलिए आया है और कहाँ जाना है) जानकारी और परिचय हेतु बताता है, तब जान-पहचान (सम्बन्ध) हो जाने के बाद नाम (शब्द) पहले और रूप पीछे (बाद में) व्यवहरित होने लगता है। ठीक उसी प्रकार जब शून्य आकाश में आत्म-ज्योति सर्वप्रथम देखी गयी, तो उसका नाम (शब्द) तो किसी को पता (जानकारी) नहीं था। इसीलिए ‘आत्म-ज्योति’ को ‘वह’ कह-कह कर व्यवहरित होने लगी। चूँकि आदि में संस्कृत भाषा जब भाषा के रूप में आयी, वह ज्योति सः – ज्योति कहलायी अर्थात् आत्म सः शब्द (नाम) में परिवर्तित हो गया।
चूँकि वह ज्योति किसी वस्तु की तो थी नहीं कि उस वस्तु की ज्योति कही जाय और किसी से सम्बंधित भी नहीं हो पायी थी कि उसके यथार्थतः नाम (शब्द) ‘आत्म’ के साथ उसको कहा जाय, साथ ही उस ज्योति में चेतनता पायी गयी। इसीलिए वह चेतन ज्योति भी कहलायी। वह चेतन-ज्योति किसी वस्तु की नहीं थी और बहुत प्रभावी महसूस हुई, साथ ही स्वतन्त्र अस्तित्व वाली दिखायी दी थी। जिस परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा से उत्पन्न हुई थी, वह तो मात्र ‘आत्मतत्त्वम्’ रूपी शब्द रूप में अपनी गोपनीयता हेतु अज्ञान रूप अन्धकार का पर्दा डालकर छिपा रहता है। यही कारण है कि उसे अपने प्रयत्नों से कोई लाख-करोड़ उपाय करे, तब तक नहीं जान सकता है, जब तक कि परमात्मा स्वयं अपना अज्ञानान्धकार रूप पर्दा हटाकर अपने यथार्थतः ‘आत्मतत्त्वं’ रूप शब्दब्रह्म रूप परमब्रह्म परमेश्वर को तत्त्वज्ञान द्वारा ही जना-दिखा-मिला एवं पहचान न करा दे।
यथार्थतः परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वं) रूप शब्द-ब्रह्म न ज्योति होता है और न अन्धकार, न सत्य होता है और न असत्य, न चेतन होता है और न जड़, न दिन होता है न रात, अर्थात् वह इन समस्त उभयपक्षीय नामों से सर्वथा विलक्षण होता है, जिससे इन सबकी उत्पत्ति होती है और वह इन सबका उपास्य देव है। सब कुछ के बावजूद भी वह ज्ञेय है और ज्ञेय ही नहीं है, बोधगम्य भी है।
आइए अब हम लोग पुनः ज्योति के पास चलें। चूँकि वह ज्योति स्वतन्त्र अस्तित्व वाली प्रभावशाली थी इसलिए वह दिव्य-ज्योति (Divine Light) के नाम से भी जानी और कहलाई जाने लगी। वह दिव्य-ज्योति, परमब्रह्म से उत्पन्न (प्रकट) हुई थी इसीलिए उसका एक नाम ब्रह्म-ज्योति भी पड़ गया। वह चूँकि ज्योति (नूर) इलाह (पूजनीय) उपास्यरूप देव अल्लाह से उत्पन्न हुई थी इसीलिए उसका ‘नूर इलाही’ नाम भी पड़ गया। चूँकि यह ज्योति (नूर) अचानक बिना किसी वस्तु के सहारे ही आसमान में दिखाई दी थी इसलिए इसका एक नाम ‘आसमानी रोशनी’ भी पड़ गया। चूँकि यह ज्योति जो अल्लाह रूप आलिम से आई थी जिसके कारण यह इल्म वाली थी इसलिए उसका एक नाम ‘आलिमे नूर’ नाम भी पड़ गया। इस प्रकार मूलतः यह ‘आत्म-ज्योति’ अनेक नामों वाली परन्तु रूप एक ‘ज्योति’ ही रहते हुये जानी जाने लगी। यही कारण है की यह मूलतः ‘आत्म-ज्योति’ में ज्योति प्रथमतः मिलने के कारण नाजानकारी तक लोग वह ज्योति ही कहकर सम्बोधित करते हुये व्यवहार करने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘सः’ नाम (शब्द) और ज्योति रूप में ही आत्मा प्रसिद्ध हो गई। हालांकि ज्योति को पकड़ने अथवा ज्योति से मिलने वाले योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर आदि सभी ने ‘आत्म-ज्योति’ के रूप में अनुभव किया, परन्तु पकड़ते अथवा मिलते समय प्रथमतः वह ‘सः’ शब्द (नाम) और ज्योति रूप में ही आती है अथवा घोषित की गयी जो सर्वमान्य है।

आत्मा और शक्ति 
सृष्टि-क्रम के उपक्रम में आत्म-ज्योति ही दो भागों में विभाजित हो गयी। (1) पहला ‘आत्म’ शब्द जो चेतनायुक्त था क्योंकि परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा जो ‘वचन’ रूप (परमसत्ता रूप सामर्थ्य और सर्वोच्च शक्ति से युक्त शब्द रूप ‘वचन’ होता है ) था और है भी और रहेगा भी, से उत्पन्न होने के कारण शब्द जो ‘आत्म’ था, जो बाद में आत्मा नाम से कहा जाने लगा। सत्ता-सामर्थ्य रूप सर्वोच्च-सत्ता शक्ति से उत्पन्न होने के कारण चेतनता शब्द रूप आत्मा के साथ रह गयी और ज्योति पृथक रूप में चेतनाहीन अवस्था में हो गयी। चूँकि इसकी भी उत्पत्ति उसी परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमब्रह्म परमेश्वर से ही हुई है, इसलिए सत्ता-सामर्थ्य रूप सर्वोच्च शक्ति से उत्पत्ति के कारण सत्ता रूप सामर्थ्य तो पिता रूप शब्द के रूप में ही ‘आत्म’ रूप आत्मा शब्द के रह जाने के कारण ‘आत्म’ रूप आत्मा के साथ ही रह गया परन्तु ज्योति रूप शक्ति जो ‘आत्म-ज्योति’ से छिटककर पृथक हो गयी, तो छिटकने या पृथक होने वाला गुण ज्योति रूपा शक्ति में चला गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग (पृथक-पृथक) होना इसका स्वाभाविक गुण हो गया। यही कारण है कि ‘आत्म’ शब्द रूप ‘सत्ता-सामर्थ्य’ के रूप में रहते हुये भी एक रूप ‘आत्म’ शब्द रूप में ही रह गया परन्तु उसी की ज्योति रूपा शक्ति पृथक्करण गुण स्वभाव वाली हो गयी, जो आगे चलकर ऐसे दोषों में परिणित हो गयी कि इसकी गतिशीलता भी जड़ता में बदलती गयी, फिर भी इसका पृथक्करण स्वभाव जड़ता में भी कायम रहा, जो अब तक चला आ रहा है।

आत्मा की एकरूपता और स्थिरता तथा शक्ति की पृथकता और परिवर्तनशीलता 
‘आत्म’ शब्द रूप आत्मा शब्द ने आदि से ही पैतृक अथवा आनुवंशिक रूप अपने ‘आत्म’ शब्द रूप को नहीं छोड़ा। भले ही करोड़ों-अरबों अथवा खरबों की संख्या में क्यों न चला जाय, परन्तु ‘आत्म’ शब्द रूप एकरूपता और अपनी स्थिरता को नहीं छोड़ा, जबकि सत्ता-सामर्थ्य से युक्त यही होता है। परन्तु ज्योति रूपा शक्ति तुरन्त ही अपनी पैतृक अथवा आनुवांशिक रूप ‘वचन’ रूप शब्द रूप को छोड़कर तुरन्त ही ज्योति पुंज रूप में परिवर्तित हो गयी। जिस प्रकार आज भी लड़के (पुत्र) तो अपने पैतृक नाम पर टिके रहते हैं। इसलिए इनका नाम भी पैतृक के रूप में आता और दर्ज होता रहता है, परन्तु लड़कियाँ (पुत्रियाँ) अपने पैतृक को ही बदलते हुये अपने माता-पिता से अलग तो चली ही जाती हैं, भ्राताओं से भी अलग तथा दूर चली जाती हैं। भ्राता तो चाहे जितने भी हों, एक ही स्थान (पैतृक) पर पैतृक नाम पद्धति के आधार पर ही स्थिर रह जाते हैं परन्तु लड़कियाँ (पुत्रियाँ) जितनी होंगी उतने स्थानों पर दूर-दूर जा-जा कर वहीं-वहीं पुरुषों से मिलकर एक परिवार बसा लेती हैं। पुनः वहाँ पर भी यही उपरोक्त पद्धति ही लागू हो जाति है। यही क्रम सृष्टि के आदि से अब तक चला आ रहा है, कि कोई लड़की जहाँ पैदा होती है, वह वहाँ रुक ही नहीं सकती है, वह अवश्य ही कहीं चली जाएगी अथवा किसी न किसी पुरुष से सम्बन्ध स्थापित कर लेगी। यही कारण है कि ममता और आसक्तिवश कि लड़की कहीं ऐसे स्थान पर न चली जाय, जहाँ पर कष्ट हो, इसमें भी पिता यही सोचता रहता है कि लड़की वाले एकत्रित रहते क्योकि एकरूपता और स्थिरता तो पुरुष होने के कारण इनका स्वाभाविक गुण था लेकिन लड़की वहाँ पर भी जाकर अपने स्वाभाविक गुण के कारण विग्रह रूप फुटमत पृथक्करण का सिद्धान्त लागू कराकर अपने पति को लेकर अलग (पृथक) हो जाती है। दो चार दिन पहले हो या चार दिन बाद। यह लड़की वाला प्रसंग अब यहीं रखें। पुनः आगे इसकी व्याख्या होगी। अब पुनः मूल प्रकरण पर आया जाय। ठीक यही पद्धति ज्योति पर भी लागू है।
‘आत्म-ज्योति’ रूप लड़का-लड़की, पुत्र-पुत्री अथवा भाई बहन समझें, जो परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप ‘वचन’ रूप पिता जिसके अधीन आदि-शक्ति रूप माता रहती हैं। पिता अगुवा (आगे) तथा माता अनुगामिनी (पीछे) रूप में रहती है। इसलिए पिता पहले दिखलाई देता अथवा मिलता है, तब उसके पीछे अनुगामिनी रूप में रहने वाली माता भी मिल जाती है। माता का सर्वस्व पिता में ही निहित होता है। यही कारण है कि पिता से ही लोग मिला करते हैं और जो अपने बन जाते हैं फिर माता से भी मिलने लगते हैं। ठीक इसी प्रकार सर्वप्रथम परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप पिता मिल जाते हैं। तब उनके पीछे अनुगामिनी रूप में रहने वाली आदि-शक्ति भी मिल ही जाती हैं। पुनः आया जाय, अब पुत्र-पुत्री रूप अथवा परमात्मा के बाद भाई-बहिन रूप ‘आत्म-ज्योति’ से ज्योति-पुंज अलग होकर दूर जाकर शून्य आकाश में चमकने लगा जो“एक प्रचण्ड प्रवाहयुक्त अक्षय तेज पुंज” के रूप में कायम हुआ परन्तु अपने स्वभाविक गुण पृथक्करण के कारण इस “प्रचण्ड प्रवाहयुक्त अक्षय तेज पुंज” (Supper Fluid) से नाना रूपों में ज्योति छटाएँ छिटक कर (पृथक होकर) शून्य आकाश में भ्रमण करने लगीं। भ्रमण करते-करते गोलाकार रूपों में परिवर्तनशीलता गुण के कारण हो जाती हैं जो आगे चलकर तारों के रूप में जानी जाने लगीं। जिस प्रकार लड़कियाँ जहाँ जाती हैं
वहीं अपना परिवार बसा लेती हैं। ठीक उसी प्रकार ज्योति रूपा शक्ति जो ‘एक प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ रूप में रहते हुये भी अपने में से छिटके हुए नाना ज्योति पुंज भी जो अलग होते समय ‘प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ तार के रूप में थे, जो भ्रमण करने के कारण गोलाकार हो गए, वे तो ‘तारे’ (Star) कहलाने लगे, जिसमें से एक सूर्य भी है। हालांकि यह गिनती गिनना कि सूर्य जैसे कितने तारे हैं, तो यह संख्या भी ठीक उतनी ही है, जितनी कि चौरासी लाख प्रकार की योनियों में जितने प्राणी हैं। जिस प्रकार लड़कियाँ अपने पिता-भ्राता से दूर-दूर जा-जा कर अपना परिवार बसा लेती हैं। ठीक उसी प्रकार शक्ति रूपा ‘ज्योति-पुंज’ रूप ये तारे भी अपने-अपने स्थान पर एक-एक परिवार बसा लेते हैं, जिसमें से प्रत्यक्षतः जानकारी और परिचित रूप ‘सौर-परिवार’ दिखलायी दे रहा है।
जिस प्रकार जो लड़कियाँ दूर जाकर अथवा माता-पिता और भ्राता से पृथक होकर किसी ‘आदमी’ रूपी पुरुष से मिल जाती हैं, मात्र वे ही परिवार बसा सकती हैं। ठीक उसी प्रकार जो तारे भ्रमण करते-करते ‘आत्म’ शब्द रूप किसी शब्द-सत्ता से टकराते हैं, तो वह उनकी ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप तार की आकृति विखंडित होकर बीच में शब्द-सत्ता से युक्त तारे के इर्द-गिर्द भ्रमण करने लगते हैं। जैसे सौर-परिवार। परन्तु जिस प्रकार अविवाहित लड़की कहीं परिवार नहीं बसा पाती क्योंकि उसका माता-पिता तथा भ्राता से सम्बन्ध कटकर किसी अन्य पुरुष से अभी सम्बन्ध सदा स्थापित नहीं होता है। ठीक उसी प्रकार जो तारे अभी अपना सम्बन्ध ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ से काटे नहीं रहते हैं, वे ‘पुच्छल-तारे’ के रूप में शून्य आकाश में विचरण करते रहते हैं। कुवांरी लड़कियों के अन्दर अन्य शादी वाली लड़कियों से जिस प्रकार तेज, रौनक, सुन्दरता आदि-आदि अधिक मात्रा में पायी जाती है, ठीक उसी प्रकार ‘पुच्छल-तारों’ में भी प्रचण्ड शक्ति का तेज भी रहता है। इसीलिए अन्य तारे भी उससे भयभीत रहा करते हैं क्योंकि जिस क्षेत्र की तरफ ये बढ़ते हैं, उसके परिवार को प्रभावित किए बिना नहीं छोड़ते हैं। जिस प्रकार कुंवारी लड़कियाँ यदि किसी अन्य परिवार में जाती हैं तो उस परिवार को प्रभावित किए बिना नहीं छोड़ती हैं, कहीं कहीं फँस जाती हैं तो कहीं-कहीं किसी के साथ चली भी जाती हैं और वहाँ परिवार बसाने लगती हैं। ठीक यही हाल पुच्छल तारों का भी होता है। यही कारण है कि उनके तेज से सभी तारे जो पारिवारिक हैं, भयभीत रहते हैं कि टकराकर कुछ नष्ट-भ्रष्ट करते हुये ‘खाक’ (जलाकर राख़) न बना डालें अथवा तारों के परिवार के किसी गृह-उपग्रह को ही पूरी तरह आकर्षित करके अपने क्षेत्र में न कर लें। क्योंकि पुरुषों को अथवा किसी अन्य लड़कियों को भी अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता लड़कियों में होती है। ठीक यही आकर्षण तारों में भी होता है। यही कारण है कि जिस वर्ष कोई पुच्छल तारा जितनी लम्बाई में जितने अधिक दिन तक दिखलायी देता है, उतनी ही अधिक तहस-नहस अथवा नष्ट-भ्रष्टता का भय छाया रहता है। यह कोई नयी बात नहीं है। उपरोक्त बातें अपने आप में महानतम् आश्चर्य होते हुये भी अकाट्य एवं परमसत्य हैं।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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