अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में ‘हम’ जीव मूलाधार-चक्र स्थित शिवलिंग में लिपटी हुई सोइ हुई सर्पिणी रूप कुण्डलिनी-शक्ति में रहता है। कुण्डलिनी-शक्ति जब ऊर्ध्वमुखी रहती है तो आत्म-कल्याण का बार-बार विचार बनता रहता है, जिससे वह व्यक्ति उत्प्रेरित हो-हो कर पूजा-पाठ, तीर्थ-स्नान, होम-जाप आदि करने लगता है, उससे भी सन्तोष नहीं हो पाता है अर्थात् संतुष्टि नहीं मिल पाती है, तब वह व्यक्ति सन्त-महात्मा आदि का पता खोज-खोज कर मिलता और शान्ति तथा आनन्द को प्राप्त करता रहता है। परन्तु जिसकी कुण्डलिनी अधोमुखी होकर सोयी रहती है, वह व्यक्ति संसार में कर्म करता और उसके अनुसार भोग-भोगता रहता है। यह अधःपतन की स्थिति है क्योंकि कर्म करता हुआ व्यक्ति जड़ता में जकड़ता जाता है। अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर हैं। घर या मकान हमारा वास स्थान है, शरीर हमारा रूप है।
विचारक में ‘हम’ – विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर नहीं है बल्कि जीव है। ‘हम’ जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है। इनके अनुसार ‘हम’ जीव ही सब कुछ है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ ‘हम ब्रह्म हैं’ या ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’। इन विचारकों के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव हृदय-गुफा में रहता है और विचारों के दवारा ही ‘हम’ जीव को जाना जाता है। संसार में विचार से श्रेष्ठ कोई बात नहीं है आदि। ये उपरोक्त सब विचार विचारकों का है। असलियत तो यह है कि विचारक अति स्वार्थी एवं अहंकारी व्यक्ति होता है। इनकी समस्त जानकारियों का आधार कल्पना एवं विचार होता है। कल्पना या विचार के अलावा जानकारी का इनके पास कोई आधार तो होता नहीं। ये लोग परमात्मा को तो जानते ही नहीं, आत्मा को भी नहीं जानते हैं। विचारक ‘हम’ जीव को ही सब कुछ मानते हुए, कभी-कभी तो यह भी कहने लगते हैं कि ‘हम’ एक विचार है, ‘हम’ विचार में ही रहता है और विचार हृदय गुफा में रहता है।
अन्ततः यथार्थतः सत्य बात यह है कि ‘हम’ उच्चारण ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव का है, जो शरीर में रहते हुए मन और बुद्धि को प्रतिनिधित्व देकर, उन्ही प्रतिनिधियों के माध्यम से इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। इस प्रकार ‘अहम्’ रूप जीव, ‘सः’ रूप आत्मा से बराबर ही शक्ति-तेज प्राप्त करता रहता है और उसे मन और बुद्धि के माध्यम से इन्द्रियों को सुपुर्द करता रहता है। इस प्रकार स्वांस-प्रस्वांस के माध्यम से आत्मा शरीर में प्रवेश करती रहती है और जीव रूप ‘अहम्’ बराबर ही आत्मा से मिलने हेतु शरीर से बाहर जाया करता है। यही क्रम बराबर होता रहता है। विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव है, शरीर इसका निवास स्थान है। विचार कार्य करने का माध्यम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से पुनः आकृति ही जीव का रूप है।
सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा में ‘हम’
सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव ही आत्मा से मिलकर ‘हम’ आत्मा हो जाता है। तत्पश्चात् ‘हम’ ‘ज्योति’ रूप आत्मा है। ये लोग सामान्य व्यक्तियों से कहा करते हैं कि ऐ बन्धुओं ! ऐ आत्मवत् बन्धुओं ! हमारी जिस शरीर को देख रहे हो ‘हम’ वह नहीं है, ‘हम’ तो शुद्ध-बुद्ध, निर्विकल्प, निर्लेप एवं निर्विकारी ज्योति रूप आत्मा हैं। आप लोग हमें इन दृष्टियों से जान व देख नहीं सकते हो, जब दिव्य दृष्टि देंगे, तब हमें अच्छी प्रकार जान-देख व समझ पाओगे। ये महानुभाव सोsहं या शिवोsहं – हंसो नाम और दिव्य-ज्योति या आत्म-ज्योति या परमप्रकाश आदि को अपने ‘हम’ का रूप बताते, जनाते व दिखाते हैं। अन्ततः समस्त सिद्ध-साधक या योगी-यति या सन्त-महात्मा आदि आध्यात्मिक नेताओं द्वारा अपने को शरीर न मानकर ‘हम’ रूप अहम् को अहंकार घोषित करते हुये, इस ‘हम’ जीव को आत्म-ज्योति से मिलाने में ही इसका कल्याण मानते हैं। इस वर्ग के दृष्टिकोण में ‘हम’ रूप जीव आत्म-ज्योति से मिलकर हंसो-सोsहं हो जाता है और ऐसे सिद्ध-साधक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर आदि अपना (अपने ‘हम’ का) निवास आज्ञा-चक्र में बताते हैं और अपने अनुयायियों को भी ध्यान के द्वारा वहीं भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में ही टिकने को कहते हैं। यह आत्मिक ‘मैं’ महात्माओं का है।
अवतारी और उनके अनुयायियों या तत्त्वज्ञानियों द्वारा ‘हम’ को चार रूपों में जाना व देखा जाता है – ‘हम’ शरीर; ‘हम’ जीव; ‘हम’ आत्मा; ‘हम’ परमात्मा। उदाहरणार्थ- (1) हमारा नाम दशरथ है; मानव शरीर हमारा रूप है, हमारा घर अयोध्या है। (2) ‘हम’ जीव हैं, ‘अहम्’ हमारा नाम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त आकृति हमारा रूप है और शरीर हमारा घर है। (3) ‘हम’ आत्मा है, सोsहं-हंसो हमारा नाम है, आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति हमारा रूप है और भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र तथा शरीर से बाहर शून्य आकाश भी हमारा विवास स्थान है। (4) ‘हम’ परमात्मा है, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) हमारा नाम है, शब्द-ब्रह्म ही यानि शब्द-सत्ता रूप बचन ही हमारा रूप और परमआकाश रूप परमधाम या अमरलोक ही एक मात्र हमारा निवास है।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है। सृष्टि या ब्रह्माण्ड तथा जीव; आत्मा या ब्रह्म तथा परमात्मा की वास्तविक रूप में, यथार्थतः सत्य जानकारी एवं पहचान एकमात्र अवतारी तथा उन्ही के द्वारा जनाते, बताते और दिखाते हुये पहचान कराए गए तत्त्वज्ञानियों को ही होती है। किसी भी अन्य विद्वान, शास्त्रीय जानकार, वैज्ञानिक, मान्त्रिक, तान्त्रिक, मनोवैज्ञानिक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया को नहीं होती।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है और अन्ततः वही ‘हम’ सत्य भी होता है। शेष सभी तो कोई ‘हम’ आत्मा वाला उसी से उत्पन्न और पृथक हुआ, उसी की रोशनी आत्म-ज्योति आदि होता है और कोई ‘हम’ जीव वाला तो मात्र उसी का ‘प्रतिबिंबवत् ही होता है और शेष कोई ‘हम’ शरीर वाला जो जड़, मूढ़ एवं अज्ञानी सांसारिकों की मान्यता है जो बिल्कुल ही गलत, मिथ्या, भ्रामक एवं जड़ता का सूचक है क्योंकि ‘हम’ शरीर है, यह तो कल्पना भी नहीं हो सकता, यथार्थता की बात तो दूर रही। यह जड़ियों एवं भ्रमित मूढ़ों की देन है कि ‘हम’ को शरीर मानकर उसी में फँसे रहते हैं।
‘हम’ किसके हैं ? माता-पिता या आत्मा-परमात्मा के : यथार्थतः सत्य कौन ?
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही सबसे महत्व का विषय है कि ‘हम’ किसके हैं ? वास्तव में ‘हम’ माता-पिता आदि शारीरिक सम्बन्धियों के हैं या आत्मा और परमात्मा के ? यह एक जबर्दस्त एवं जटिल समस्या है। जब तक इसका समाधान नहीं होगा, तब तक ‘हम’ शान्ति और आनन्द, चिदानन्द और कल्याण तथा सच्चिदानन्द या मुक्ति तो कदापि हासिल नहीं कर सकते। हम सभी बन्धुओं को सर्वप्रथम इसी जटिल समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए कि वास्तव में ‘हम’ किसके हैं और हमें संसार में हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार रहना चाहिए।
उपर्युक्त जटिल समस्या के समाधान में सर्वप्रथम तो हमें यह देखना पड़ेगा कि ‘हम’ शरीर हैं या जीव; ‘हम’ आत्मा हैं या परमात्मा। ये सारी बाते पिछले प्रश्नों में हल हो चुकी हैं। समाधान हेतु हमें तो यह दिखाई दे रहा है कि बारी-बारी शरीर, जीव, आत्मा तथा परमात्मा चारों को ही हमें देखना पड़ेगा कि क्रमशः ये चारों ही किसके हैं ?
यह शरीर किसका है ?- किसी भी बात की यथार्थतः जानकारी हेतु यह अति आवश्यक है कि उस वस्तु, व्यक्ति एवं बात की उत्पत्ति या रचना, उसकी रक्षा-व्यवस्था एवं विकास तथा उत्थान-पतन के आधार पर ही सही सही निर्धारण हो सकता है। शरीर न तो किसी की माता ही हो सकता है और न किसी का पिता हो सकता है, न किसी का पुत्र हो सकता है और न किसी कि पुत्री हो सकता है। इतना ही नहीं यथार्थतः बात तो यह है कि शरीर से शरीर मात्र को ही मात्र शारीरिक सम्बन्ध एक जड़ता मूलक सम्बन्ध होता है। कोई माता-पिता किसी भी शरीर की उत्पत्ति या रचना नहीं कर सकते। शरीर रचना तो दूर रही शरीर के किसी अंग या एक बाल या नाखून की रचना भी नहीं कर सकते। कोई माता-पिता जान बूझकर किसी भी पुत्र या पुत्री की रचना नहीं करता। माता-पिता के प्रेमपूर्ण हास-विलास और भोग विलास में इन दोनों की अज्ञानता में ही विधि के विधान के अनुसार गर्भ रह जाता है और शरीर की रचना हो जाती है। इसमें माता-पिता की कोई रचना या वृत्ति नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता आपस में भोग-विलास नहीं करते तो संतानों की उत्पत्ति कैसे होती ? तो यह स्पष्ट बात है कि शत प्रतिशत ही माता-पिता अपने भोगानन्द या वासना तृप्ति हेतु ही भोग-विलास करते हैं सन्तान के लिए नहीं। यदि हजार-लाख के अन्दर एक-दो व्यक्ति ऐसे भी हों कि सन्तान सोच-विचार कर ही मैथुनी सम्बन्ध स्थापित करते हों तो इससे विधान नहीं बनेगा और पूर्व का विधान नहीं बदलेगा, बल्कि यह अपवाद स्वरूप होगा। हालाँकि ये लोग भी केवल सोच विचार ही कर सकते हैं, रचना या उत्पत्ति नहीं। अतः संसार का कोई माता-पिता किसी भी शरीर की न तो रचना किए हैं और न कर सकते हैं। माता-पिता तो एक निमित्त मात्र ही होते हैं, कर्ता-भर्ता नहीं। (आदि पुरुष एवं आदि-शक्ति(स्त्री) की उत्पत्ति किसी माता-पिता से नहीं हुई थी। इस प्रकार परमप्रभु जैसा चाहे कर सकता है। ) शरीर के विकास में भी माता-पिता की प्रथम भूमिका नहीं होती, बल्कि प्रथम भूमिका जीव की होती है। कोई माता-पिता यह नहीं कह सकता या दावा नहीं कर सकता कि लड़के को दूध हमने पिलाया है, लड़के के खान-पान की व्यवस्था हमने की है क्योंकि पहली बात यह है कि शरीरों के जीवों की ब्रह्म से जुड़ी रहने वाली नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल अमृत-पान से बिछुड़ गयी, तो क्या वे इतने से भी गए कि दूध न पिलाएँ और खान-पान की व्यवस्था न करें ? और दूसरी बात यह है कि उत्पन्न शरीर में जीव नहीं रहता तो उस शरीर को कोई माता न दूध पिलाती है और न पिता खान-पान की व्यवस्था करता है, बल्कि दोनों ही मिलकर उस जीव रहित शरीर को ले जाकर मिट्टी दे देते हैं। इस शिशु शरीर की मिट्टी पिता से ही दिलाई जाती है। कोई माता उस शरीर को अपने पास रोक नहीं पाती है। कहाँ गया माता का दूध ? और कहाँ गया पिता का खान-पान ? कहाँ गया पिता का प्यार और सामर्थ्य ? और कहाँ गयी माता की शक्ति ? कि अपने शिशु के शरीर को अपने हाथ ही मिट्टी खोदकर गाड़ या ढप दिया जाता है। कहाँ गयी शारीरिक क्षमता ? और जब जीव ही प्रधान है शरीर के विकास में तो शरीर जीव का हुआ कि माता-पिता का ? हमें तो यह दिखलाई दे रहा है कि शरीर का एकमात्र हित जीव ही है और कोई नहीं। क्योंकि जीव रहते ही शरीर का साथ या सहयोग कोई दे पाता है। जीव के शरीर छोड़ते ही संसार में कोई ऐसी वस्तु अथवा कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शरीर को रख सके और उसका विकास कर सके। शरीर का विकास मात्र जीव पर आधारित है, माता-पिता पर नहीं। बहुत शरीरों को देखा गया है कि उत्पन्न होते ही माता-पिता तो फेंक देते हैं, फिर भी शरीर समाप्त नहीं होता, जैसे कबीर और तुलसी आदि। परन्तु एक भी ऐसे माता-पिता जानने-सुनने को नहीं मिले हैं, जो जीव रहित शरीर को रखकर दूध और खान-पान देते हुए उसका विकास करता हो। इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि शरीर एकमात्र जीव का ही होता है किसी और का नहीं। सांसारिक व्यक्ति अगर कोई सहयोग करता भी है तो उसके पीछे उसका कोई न कोई अपना स्वार्थ जरूर छिपा होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस बात पर अवश्य ध्यान देना पड़ेगा कि कोई स्वार्थी आप के पतन का ही कारण हो सकता है, उत्थान का नहीं।
अब रक्षा-व्यवस्था की बात देखी जाय, तो स्पष्टतः दिखाई देगा कि माता-पिता अथवा कोई शारीरिक सम्बन्धी शरीर की रक्षा-व्यवस्था नहीं कर सकता, यदि जीव साथ छोड़ दे। जीव के साथ छोड़ते ही रक्षा-व्यवस्था तो रक्षा-व्यवस्था है, उसके स्थान पर शरीर के नाश यानि समाप्ति की व्यवस्था ये माता-पिता, पुत्र-पुत्री, सगा-सम्बन्धी आदि करना प्रारम्भ कर देंगे और तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक कि शरीर को आग या पानी में या मिट्टी में डालकर बर्बाद नहीं कर देंगे।
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह तो आप लोगों को मानना ही पड़ेगा कि जीव यदि शरीर का साथ छोड़ दे तो माता की गोद में भी रहने पर माता उस मुर्दा-शरीर की रक्षा नहीं कर सकती और लोगों की बात क्या कहीं जाय। परन्तु यदि जीव साथ है तो वह व्यक्ति चाहे जहाँ भी रहे, समीपस्थ व्यक्ति उसका परिचित या दोस्त बन जया करता है और उस शरीर की रक्षा व्यवस्था वह दोस्त-मित्र या सहपाठी करने लगता है। यदि कोई साथी न भी हो, तब भी उस शरीर को कोई यदि नाजायज तरीके से परेशान करता है, तो आत्मवत् सम्बन्ध प्रत्येक से होने के नाते कोई न कोई तीसरा या अन्य व्यक्ति जरूर ही परेशान आदमी की तरफ से बोलने और उसका साथ देने लगता है। यदि कोई साथ नहीं देगा, तब भी सरकार अवश्य साथ देती है। परन्तु शरीर के साथ जीव ही न हो तो दुनिया का कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उस शरीर की रक्षा नहीं कर सकती। आक्सीजन भी जीव नहीं दाल सकता है और दूध या कोई टॉनिक भी उसका विकास या रक्षा नहीं कर सकता। इससे भी स्पष्ट हो जाता है शरीर न तो माता-पिता का है, न पुत्र-पुत्री का है और न किसी अन्य सम्बन्धी का है, यह तो मात्र जीव का ही होता है। जीव की शत्रु-मण्डली रूप माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्रियाँ, सगे-सम्बन्धी तथा दोस्त या नौकरी-चाकरी आदि को किसी भी रूप में अपने में हिस्सेदार नहीं बनाना चाहिए।
शरीर की अन्तिम गति या दशा
शरीर भी अन्य यन्त्रों की भाँति ही सृष्टि के अन्तर्गत एक सर्वोच्च एवं विचित्र किस्म का यन्त्र है। अन्तर यह है कि सांसारिक सब यन्त्रों को तो मानव चलाता है, पर मानव शरीर रूपी यन्त्र को मानव न चलाकर उसके स्थान पर जीव, जीवात्मा, आत्मा एवं परमात्मा द्वारा चलाया जाता है। चूँकि परमात्मा जब-जब परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होते हैं, तो वे भी मानव शरीर से ही कार्यों का सम्पादन करते हैं। यही कारण है कि सृष्टि के सर्वोत्तम एवं विचित्र यन्त्र के रूप में इसकी रचना हुई। यह वह यन्त्र है जिसके माध्यम से जीव, जीवात्मा, आत्मा एवं परमात्मा भी संसार में इसके द्वारा कर्म, साधना, तत्त्वज्ञान एवं निष्काम कर्म करते हुए, भोग-भोगते हुए संसार में भ्रमण करते हुए गुजरते रहते हैं।
मानव शरीर की अपनी कोई गति या दशा नहीं होती है। यह भी जड़ के समान ही प्रयुक्त होती रहती है। यह शरीर जब शत्रु-मण्डली रूपी माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, दोस्त एवं सगे-सम्बन्धी आदि के जाल में फँसे रहकर, जीव यदि शरीर छोड़कर निकलता है, तो उपरोक्त शत्रु-मण्डली शरीर को जितनी जल्दी हो सके उतनी ही जल्दी विनाश या आग में या मिट्टी में डालकर बर्बाद कर उस स्थान को शमशान घोषित करते हुये ‘भूतहा’ (भूतों का स्थान) घोषित कर देते हैं कि कोई पारिवारिक सदस्य आदि उधर जाय भी नहीं। इस प्रकार से तो ये शत्रु-मण्डली ‘रूप’ को यानि शरीर को समाप्त कर देती है, जो सदा-सर्वदा के लिए ही समाप्त हो जाय। चूँकि इस प्रक्रिया से सभी को गुजरना पड़ता है। इसीलिए इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है, जबकि यह अति महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर काफी गहराई से जानकारी करनी चाहिए और इस पद्धति को सुधार कर उत्तम पद्धति लागू करनी चाहिए। यदि यह कहा जाय कि शरीर की यही अन्तिम गति है, शरीर की समाप्ति तो होती है, यदि ऐसा नहीं किया जाय तो सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी। चारों तरफ लाशें ही लाशें, वह भी सड़ती और बदबू फैलाती लोगों के लिए विशेष संकट उत्पन्न हो जाएगा। परन्तु ऐसी बात नहीं है, आप इसी प्रश्न में आगे जीव, आत्मा और परमात्मा वाले विषय को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा।
उपर्युक्त प्रकरण के अनुसार कुछ देर के लिए मान भी लिया कि मानव शरीर की यही गति और दशा है। उसे समाप्त करना ही पड़ता है। इसलिए यह ठीक है तो इससे भी बुरा कार्य तो शत्रु-मण्डली का यह होता है कि जो सम्पत्ति का अधिकारी होता है वही मुँह में आग लगाएगा। इतना ही नहीं उस शरीर या रूप को ही समाप्त नहीं किया जाता, बल्कि सम्पत्ति आदि जहाँ-जहाँ भी उसका नाम रहता है, वहाँ-वहाँ से ही ख़ारिज-दाखिल के माध्यम से उन्ही की कमाई सम्पत्ति से नाजायज खर्च कर-कराकर उसका नाम कटवा कर, उसके स्थान पर अपना नाम दाखिल करा कर, उसका नाम और रूप, दोनों को ही समाप्त कर देते हैं। जबकि उसने सन्तान पैदा की थी कि बेटा हमारा नाम चलाएगा अर्थात् पुत्र उत्पन्न होने से नाम कायम रहता है। इन जड़ियों और अन्धों को कौन समझाए कि पुत्र-पौत्र आदि नाम कायम नहीं रखते, बल्कि नाम और रूप दोनों को ये ही समाप्त करते-कराते हैं, दूसरे नहीं। शरीर के तो ये सब कट्टर शत्रु हैं।
मनुष्य नाम और रूप के सिवाय और कुछ होता ही नहीं और यह अपना-अपना कहने-कहलाने वाले शत्रु-मण्डलियों द्वारा यही नाम और रूप खाया जाता है, तो फिर ये लोग किस बात के हितैषी हैं ? ये कभी भी हितैषी नहीं हो सकते। इनके लिए आप नाना तरह के कुकर्म और पाप कर-कर के लाते और खिलाते रहिए, परन्तु जरा सोचिए तो सही कि वर्तमान जीवन में भी आप की सजाओं में कितना बँटवारा करते हैं ? अपनी करनी की सजा आप को अपने आप ही भुगतना पड़ती है। यदि थोड़ा बहुत कोई सहयोग करते हुये दिखलायी देता है, तो थोड़ा सा गहराई में प्रवेश करके देखें तो उसके पीछे उनका कोई स्वार्थ अवश्य निहित होगा, अन्यथा वे नहीं पूछते।
पारिवारिक 'शत्रु-मण्डली' से बच निकलने वाले का ही नाम और रूप दोनों कायम रहता है
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब ऐसे विषय को ले चला जाय जिससे व्यक्ति को पता चले कि कौन उसका हितैषी है और कौन शत्रु है ?
बन्धुओं ! हो सकता है कि आप मातृ-भक्ति, एवं पितृ-भक्ति तथा पति-व्रत एवं पत्नी-व्रत (नए लोगों के लिए) तथा पुत्र-पुत्री के लाड़-प्यार में बहुत ही आनन्दित रहते हों, तो आपको कुछ कष्ट हो, परन्तु व्यक्तिगत उद्धार एवं समाज-सुधार हेतु हम तो सत्य एवं यथार्थ बात कहने, बताने, जनाने, आवश्यकता पड़ने पर दिखाते हुए बात-चीत के साथ ही परिचय-पहचान भी कराने हेतु मजबूर हूँ, क्योंकि पूरे भू-मण्डल पर इसके सिवाय मेरा और कोई कार्य नहीं है। परमात्मा के सम्पूर्ण शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य को भू-मण्डल पर स्पष्टतः जनाते-दिखाते और बोध कराते हुए हम एवं हमारा समाज उसी परमात्मा की दृढ़ आस्था से कृत-संकल्पित है। इसके लिए हमें जो कुछ भी करना पड़े और झेलना पड़े, सदा-सर्वदा तत्परता के साथ करने और झेलने के लिए भी सहर्ष तैयार हैं। शरीर की कीमत भी इसके समक्ष नगण्य होती है और दूसरा कुछ हमारे पास है ही नहीं, जो चुकाने को तैयार रहें। आप सभी भगवद् प्रेमी बन्धुओं से अनुरोध है कि स्पष्टतः जान-समझकर इस सर्वोत्तम सत्कार्य में जुट जाएँ।
पारिवारिक एवं सांसारिक शारीरिक सम्बन्ध वाले शत्रु-मण्डली रूपी मीठे-जहर से जो किसी भी तरीके से बच निकला, आज वही मन्दिरों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, मस्जिदों आदि के माध्यम से सनातन, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन एवं इस्लाम आदि के समस्त सद् ग्रन्थों में कायम हो गया। जो व्यक्ति अपने शरीर को इस मीठे-जहर रूपी शत्रु-मण्डली से निकाल गया, वही आज समाज में पूजनीय, सम्माननीय एवं विशेष अदरणीय के रूप में शरीर छोड़ते हुये भी, अपने नाम और रूप के साथ आज भी कायम है और आगे भी रहेगा। उदाहरणार्थ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, हरिशचन्द्र, शिवि, दधीचि, रघु, बाल्मीकी, विश्वामित्र, ध्रुव, प्रहलाद, श्री रामचन्द्र जी महाराज (14 वर्ष के लिए निष्कासित नहीं होते तो आज रामायण नहीं होता), हनुमान, श्री कृष्ण जी महाराज, श्री शुकदेव जी, दत्तात्रेय, जड़ भरत, बलि, उद्धव, गोपियाँ, जैन-महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, आद्य शंकराचार्य जी, ईशा मसीह, मुहम्मद साहब को भी हिजरत करना पड़ा था, नानक देव जी, कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, गोरखनाथ जी, भर्तृहरि जी, राम-कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, आदि आदि समस्त योगी आध्यात्मिक सन्त-महात्मा आदि सद् ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। ये सभी या तो ‘मीठे-जहर’ रूपी ‘शत्रु-मण्डली’ से निष्कासित हुये हैं या जानबूझ कर ही बच निकले हैं। यही कारण है कि आज तक भी इन उपर्युक्त महानुभावों का नाम और रूप शरीर छोड़ने के बाद भी कायम हैं और रहेंगे भी। इतना ही नहीं बन्धुओं गौर करने की बात है कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में तथा क्रांतिकारी आदि जो ऐतिहासिक महापुरुष बनें हैं, वे इस शत्रु-मण्डली से ऊपर या अलग हटकर ही सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ आदि किसी भी क्षेत्र में – राजनीतिक में चौराहों पर और आध्यात्मिक तथा तात्त्विक में मन्दिरों, गुरुद्वारों एवं गिरिजाघरों में सुरक्षित स्थान पाकर, ‘मीठे-जहर’ रूप ‘शत्रु-मण्डली’ के द्वारा शमशान एवं भूतहा, प्रेतहा बनने से बच जाते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे महानुभावों के नामों के ख़ारिज की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिधर देखो उधर दाखिला। लगभग छोटे-बड़े सभी के हृदय में और जुबान पर दाखिला। यह है जीवन, इसका नाम है जीवनोत्कर्ष। यह हुई शरीर की गति या दशा। हालाँकि हमको यह भी मालूम है कि जड़ियों, मूढ़ एवं कामी-व्यसनी आदि कामिनी-कंचन वालों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा, परन्तु यह भी सत्य है कि थोड़ा भी संस्कार रहा होगा और बचा होगा, तो अवश्य आत्म-कल्याण का, आत्म-सुधार एवं उद्धार पर गौर करना ही पड़ेगा।
अन्ततः आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ किसी भी क्षेत्र में तीव्र गति से विकास एवं उत्थान हेतु पारिवारिक सम्बन्धों से ऊपर उठना ही होगा, अन्यथा यह मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली, आप की समाप्ति, आपके पतन, आप को पापों एवं कुकर्मों के जाल में फँसाकर बर्बाद और बदनाम करके ही छोड़ेगी। समय रहते जो नहीं चेत जाता, वह समय चूक जाने पर क्या कर सकता है ? बाद में पछताने के सिवाय मिल ही क्या सकता है ?
'हम' जीव किसका है ?
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! अब तक तो ‘हम’ शरीर से सम्बंधित वार्ता या सामान्य जानकारी में लगे थे, परन्तु अब ‘हम’ जीव पर विचार मन्थन करना चाहिए। यहाँ पर मुख्य विषय यह है कि ‘हम’ जीव वास्तव में किसका है? इस प्रश्न पर विचार-मन्थन हेतु सर्वप्रथम यह देखना होगा कि ‘हम’ जीव की उत्पत्ति, उत्थान और रक्षा-व्यवस्था किससे होती है ?
सर्वप्रथम ‘हम’ जीव, शरीर न होकर, शरीर के माध्यम से कार्य करने और भोग-भोगने वाला ‘अहम्’ शब्द सत्ता रूप एक अस्तित्व है। ‘हम’ जीव की उत्पत्ति आत्म-ज्योति रूप शब्द-शक्ति से होती है। दूसरे शब्दों में आत्म-ज्योति ही शरीर में प्रवेश करके ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित होकर कार्य करती है। ‘हम’ जीव की उत्पत्ति के बारे में लोगों को जानकारी होती ही नहीं है क्योंकि उन्हे ‘हम’ जीव के बारे में ही कुछ पता नहीं होता। ‘हम’ जीव का माता-पिता कोई सांसारिक व्यक्ति या शरीर हो ही नहीं सकता। शरीर की रचना तो ‘हम’ जीव आत्म-ज्योति की सहायता से करता अर्थात् ‘हम’ जीव से आत्म-ज्योति की सहायता से शरीर की रचना कराई जाती है।
माता-पिता बनने वाले लोग कभी भी ‘हम’ जीव के माता-पिता नहीं हो सकते हैं। माता-पिता, भाई-बहिन, सगा-सम्बन्धी आदि ने ही तो ‘हम’ जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़ने वाली ब्रह्म-नाल को काट-कटवाकर वास्तविक माता-पिता रूप ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध छुड़वाकर सांसारिक जालों में फँसाने हेतु अपने आप ही माता-पिता बनना शुरू करते हुए, पारिवारिकता रूपी सांसारिकता में जकड़कर इन पारिवारिक सम्बन्धों को कायम कर लेते हैं। यही ब्रह्म-नाल शुकदेव का नहीं कट सका और कबीर का भी नहीं कट सका। तो उन लोगों को कोई नहीं फँसा सका परन्तु सभी का नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल कटवा कर ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध काट देते हैं जिससे ‘हम’ जीव बेचारा ब्रह्म-शक्ति से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों से वंचित हो जाता है। अब ‘हम’ अपने वास्तविक माता-पिता रूपी ब्रह्म-शक्ति से न मिल सकें, इसलिए ये पारिवारिक माता-पिता आदि अपने सांसारिक तुच्छ स्वार्थ-पूर्ति हेतु ब्रह्म-नाड़ी काटकर ब्रह्म-शक्ति के स्थान पर स्वयं ही माता-पिता बन बैठते हैं। आत्म-ज्योति के स्थान पर दीप-ज्योति, अमृत-पान की जगह मधु-पान और दूध-पान, दिव्य-ध्वनि की जगह फूल की थाली बजा-बजा कर फँसा देते हैं कि यही दिव्य-ज्योति, यही दिव्य-आहार तथा यही दिव्य-ध्वनि है, साथ ही सोsहं-हंसो रूप अजपा-जप के स्थान पर ‘सोहर’ गीत सुनाकर फँसाते हैं कि यही सोहर ही अजपा-जप है। इस प्रकार ‘हम’ जीव के साथ तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति हेतु, ये पारिवारिक माता-पिता आदि वास्तविक दिव्य माता-पिता रूप ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध कटवा कर अपने-अपने में ये पारिवारिक हमार-हमार कहने वाले सांसारिक जन भी प्रसूति-गृह में ही इतना बड़ा धोखा, छल, पाखण्ड एवं भ्रम-जाल को ‘हम’ जीव पर डालकर फँसा देते हैं, जिससे ‘हम’ जीव अपने वास्तविक माता-पिता से वंचित होकर, इन पारिवारिक शारीरिक माता-पिता में ही फँसकर रह जाता है। अब अन्ततः विचार करने की जरूरत है कि इस प्रकार के क्रिया-कलापों से युक्त पारिवारिक या सांसारिक व्यक्तियों को हितैषी कहा जाय या ‘हम’ जीव को तुच्छ स्वार्थों के पीछे फँसाकर मार डालने वाला मीठा-जहर रूप शत्रु-मण्डली। यह फैसला हम, आप पाठक बन्धुओं पर छोड़ रहे हैं। इस पर यदि आप हमारा फैसला जानना चाहते हैं, तो हम स्पष्टतः इन लोगों को मीठा-जहर रूप शत्रु-मण्डली ही देखते हैं। सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, ध्रुव, प्रहलाद, भरतजी, लक्ष्मण जी, हनुमान जी, उद्धव, गोपियाँ, शुकदेव, गौतम बुद्ध, महावीर जैन, मीरा, कबीर, तुलसी, विवेकानन्द आदि समस्त ज्ञानी-भक्त, आध्यात्मिक सिद्ध, सन्त-महात्मा आदि भी अवश्य ही कुछ जाने देखे होंगे। यह भी आप स्वयं विचार करके फैसला ले सकते हैं।
जब तक ‘हम’ जीव शरीर के साथ कायम रहता है और हमसे जिनका स्वार्थ पूरा होना बाकी रहता है, तब तक तो पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी, दोस्त-मित्र आदि बनकर रहते हैं, परन्तु जैसे ही ‘हम’ जीव जब शरीर छोड़कर चला जाता है, वैसे ही ये पारिवारिक सदस्य रूपी शत्रु-मण्डली ‘हम’ जीव के शरीर को समाप्त कर देते हैं। जब ‘हम’ जीव अपने शरीर की खोज में अपने शरीर के निकटतम लोगों के पास जाता है तब ‘हम’ जीव रूपी सूक्ष्म-शरीर को भूत-प्रेत, चुड़ैल आदि कहकर चाकू-छुरी लेकर सोते हैं कि अगर ‘हम’ जीव उनके पास आए तो उसे मार दें। अब देखिए, हमारी शरीर को तो मुर्दा घोषित करके समाप्त कर दिया और ‘हम’ जीव को भूत-प्रेत तथा चुड़ैल आदि घोषित करके बहिष्कार कर देते हैं। अब हमारी समझ में नहीं आता कि जो लोग हमको हमारा-हमारा कहने वाले थे, आखिर वे कहाँ चले गए ? कहाँ गया माता जी का प्यार और कहाँ गया पिता जी का दुलार ? कहाँ गया भाई का हाथ और कहाँ गया बहिन का साथ, कहाँ गयी पत्नी की सेवा और पति का प्रेम ? आदर-सम्मान, क्या सभी समाप्त हो गए ? क्यों? इसलिए कि जब तक उनका स्वार्थ पूरा हो रहा था, तब तक तो हम उनके थे और अब उनकी कोई स्वार्थ पूर्ति तो होनी नहीं है। अब क्या मतलब ? आप स्वयं सोचें।
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! अब हम आप थोड़ा-बहुत ‘हम’ जीव के उत्थान-पतन पर जानकारी हासिल करें।
'हम' जीव का उत्थान-पतन
किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा विषय का अपने स्थान के उच्चतर, उत्तमतर और ऊर्ध्वगति रूप में विकास की तरफ अग्रसर होना उत्थान तथा उसका निम्नतर रूप में अधोमुखी रूप अवनति का होना अधःपतन है। ‘हम’ जीव सृष्टि के अन्तर्गत तथा परमब्रह्म तक मध्यस्थ स्थान पर स्थित एक ‘अहम्’ शब्द-सत्ता रूप एक अस्तित्वाभास होता है, जिससे नीचे भी दो श्रेणी शरीर और संसार है और ऊपर भी दो श्रेणी आत्मा और परमात्मा हैं। अब जानना-देखना तो यह है कि ‘हम’ जीव शरीरमय होकर संसार के प्रति उन्मुख है अथवा आत्मामय होकर परमात्मा के प्रति। यदि ‘हम’ शरीरमय होकर इस निम्नतम् श्रेणी रूप संसार के प्रति उन्मुख रहता है, तब तो ‘हम’ जीव का अधःपतन कहलाएगा और यदि ‘हम’ जीव आत्मामय होकर उच्चतम् एवं सर्वोत्तम श्रेणी रूप परमात्मा के प्रति उन्मुख रहता है तब तो ‘हम’ जीव का उत्थान ही नहीं, उद्धार भी कहलाएगा। अब इसी माध्यम से ‘हम’ जीव को स्वतः ही जान एवं देख लेना चाहिए कि हमारी गति ऊर्ध्वमुखी है अथवा अधोमुखी। अगर अधोमुखी है तो मानवता का सिद्धान्त यही कहता है कि तुरन्त ही अपने आप को ऊर्ध्वमुखी बना लेना चाहिए। यदि स्वतः न बन सके तो किसी आध्यात्मिक महात्मा रूप महापुरुष से आत्मामय तथा ‘तात्त्विक’ (युगावतार) रूप अवतारी रूप परमपुरुष की शरणागत होकर उत्कट जिज्ञासा और श्रद्धापूर्वक पूर्णतः समर्पण भाव से परमब्रह्म परमात्मा को यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति से जान-देख व बात-चीत करते हुये पहचान कर अपना सुधार एवं उद्धार कर-करा लेना चाहिए। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य होता है। जो जीव मानव शरीर पाकर भी अपने इस चरम एवं परमलक्ष्य रूप परमेश्वर को नहीं प्राप्त कर लेता है, वही बार-बार जनम और मरण रूप चौरासी लाख योनियों में गोता खाता रहता है। क्योंकि तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की क्षमता एकमात्र मानव योनि को ही प्राप्त है, अन्य किसी योनि को नहीं। यही कारण है कि ऊँचे से ऊँचे स्तर के देवता भी मानव योनि के लिए लालायित रहते हैं, परन्तु देव दुर्लभ मानव योनि नहीं प्राप्त हो पाती है। सभी योनियों के लिए तो ‘हम’ जीव अपने कर्मों के फल रूप अधिकार का दावा कर सकता है परन्तु मानव योनि मात्र कर्मों के फलस्वरूप नहीं प्राप्त हो सकती है क्योंकि उस पर जब तक परमेश्वर की कृपा दृष्टि रूप इशारा नहीं होता, तब तक मानव योनि की प्राप्ति ‘हम’ जीव को नहीं हो पाती है। अब विचारणीय बात तो यह है कि ऐसी देव दुर्लभ मानव योनि पाकर भी ‘हम’ जीव यदि अपना परमकल्याण रूप परमानन्द वाले सच्चिदानन्द रूप परमेश्वर को यथार्थतः ‘तत्त्व-रूप’ में नहीं जान सके तो क्या अन्य योनि में जान सकते हैं ? कभी नहीं। बिल्कुल असम्भव हो जाएगा और इससे बढ़कर ‘हम’ जीव का अधःपतन क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं। ‘हम’ जीव का सबसे बड़ा अधःपतन यही होता है कि परमात्मा से बिछुड़ जाये, वंचित रह जाए, न मिल पाए अथवा मिलकर भी कामिनी-कंचन रूप पारिवारिक एवं सांसारिक हमार-हमार करने वाले मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली के कारण छूट जाए। हालाँकि यह भी अकाट्य सत्य है कि मीठे-जहर रूपी पारिवारिक एवं सांसारिक हमार-हमार करने वाली शत्रु-मण्डली अपने तुच्छ स्वार्थों के वशीभूत होकर नाना प्रकार के सांसारिक प्रलोभनों को दिखला-दिखला कर फँसाते रहेगी। अपनी क्षमता भर ‘हम’ जीव को अपने चंगुल से निकलने नहीं देती है। ऐसी परिस्थिति में अब मात्र अपना उद्धार अन्य महापुरुषों जैसे रत्नाकर डाकू ब्रह्मर्षि बाल्मीकी कब बना ? श्री रामचन्द्र जी की रामायण कब बनी ? ध्रुव-प्रहलाद की अमर गाथा कब बनी ? शुकदेव अट्ठासी हजार ऋषियों के अग्रणी कब बने ? उद्धव-गोपियों की अमर कथा कब बनी ? काकभुशुंडि की अमर कहानी कब पूरी हुई ? जैन महावीर कब बने ? श्री हनुमान जी, विभीषण आदि को अमरता की उपलब्धि कब हुई ? गौतम बुद्ध सिद्धार्थ से बुद्ध कब बने ? आद्यशंकराचार्य कब बने ? ईशा मसीह कब बने ? मुहम्मद साहब इस्लाम वाले लब बने ? नानक देव महापुरुष कब बने ? कबीर कब बने ? तुलसी, तुलसीदास कब बने ? मीरा भक्त मीरा बाई कब बनी ? श्री रामकृष्ण परमहंस कब बने ? नरेन्द्र स्वामी विवेकानन्द कब बने ? आदि-आदि कितने गिनाएँ, ये लोग ऊँचे स्थान को कब प्राप्त कर पाए ? तो प्रत्येक के उत्तर में एक ही बात आएगी कि जब कामिनी-कंचन रूप पारिवारिक एवं सांसारिक मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली से बच निकले तब ये लोग महापुरुष या अवतारी परमपुरुष बने।
'हम' आत्मा किसका है ?
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! अब तक तो हम आप इस विषय पर थे कि ‘हम’ शरीर और ‘हम’ जीव किसका है ? परन्तु अब हम इस विषय पर आयें कि ‘हम’ आत्मा किसकी है ? यहाँ पर भी हमें तीन बातों पर विशेष ध्यान देना होगा कि ‘हम’ आत्मा किससे उत्पन्न होती है ? कौन इसकी रक्षा व्यवस्था करता है ? और इसका उत्थान-पतन कैसे होता है ? ‘हम’ आप को चाहिए कि यथार्थ जानकारी प्राप्त करें।
‘हम’ आत्मा की उत्पत्ति- आत्मा, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा या शब्द-ब्रह्म से छिटककर पृथक हुई ‘आत्म’ शब्द-सत्ता ही अपनी स्वतः की ज्योति से युक्त होने के कारण आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति ही है। यह आत्म-ज्योति ही शब्द-रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा से छिटककर अलग होकर शून्य आकाश में विचरण करते हुए जब किसी शरीर को खासकर मानव शरीर को प्राप्त कर उसमें प्रवेश करती है, तो तुरन्त गुण-दोष से युक्त होकर जीव रूप में परिवर्तित हो जाती है। पुनः गुण-दोष से युक्त होकर जीव मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से युक्त सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त होकर शरीर के द्वारा कर्म को करते तथा उसके फलरूप भोगों को भोगते हुए संसार में विचरण करता है। कर्म और भोगों के कारण पारिवारिक एवं सांसारिक जालों में फँस-फँस कर अपने मूल अस्तित्व रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा को तो भूल ही जाता है, साथ ही साथ ‘हम’ जीव यथार्थतः अपने ‘हम’ आत्म-ज्योति शब्द रूप आत्मरूप को भी भूलकर ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव से भी गिरकर शरीरमय होकर संसार-चक्र में चक्कर काटने अर्थात् जनम-मरण रूप संसार में फँस जाता है और यह तब तक फँसा रहता है, जब तक कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा का अपने परमआकाश रूप परमधाम से अवतरण होकर किसी शरीर को धारण कर अपने से बिछुड़े हुए आत्मा और जीवों को पुनः अपनी शरणागति प्रदान कर ‘हम’ जीव और आत्मा को स्वीकार नहीं कर लेता।
आत्मा की रक्षा-व्यवस्था- आत्म-ज्योति शब्द-रूप आत्मा जब आत्मा से जीव में परिवर्तित होती है, तो उस परिवर्तन के समय ‘हम’ आत्मा ‘सोsहं’ शब्द रूप में रहते हुए गुण-दोष से युक्त हो जाने के कारण ‘हम’ आत्मा का ‘सः’ ज्योति शब्द-रूप भूलकर भ्रमवश ‘हम’ आत्मा, मात्र ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव में ही परिवर्तित होकर ‘अहम्’ ही कालान्तर में ‘हम’ शरीर मान बैठते हैं, जिससे कामिनी-कंचन रूप परिवारिकता एवं सांसारिकता रूप मीठे-जहर को पाकर ‘हम’ जीव शरीर एवं वस्तु रूप संसार में ऐसे फँस जाते हैं कि यह मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली अपना जाल बिछाकर ‘हम’ जीव को आत्म-कल्याण से गिराकर ममता और आसक्ति रूपी मोह के बन्धन से, इस प्रकार बाँध देती है कि ‘हम’ जीव के लिए, हमार रूप शरीर और संसार को छोड़कर बच निकलना मुश्किल हो जाता है। इस मोह जाल को काटकर ‘हम’ जीव की रक्षा हेतु कुछ समय तक के लिए ही आध्यात्मिक महात्मा जन सक्षम हैं परन्तु सदा-सर्वदा के लिए नहीं। सदा-सर्वदा तो ‘हम’ जीव का शरीर, परिवार एवं संसार रूप ममता-आसक्ति रूप मोह-जाल से युग-युग में खास-खास कर एक-एक बार सुअवसर प्राप्त होता है, जब परमआकाश से परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा का भू-मण्डल पर अवतरण होकर शरीर धारण कर अपने से छिटके-बिछुड़े एवं भूले भटके हुए ‘हम’ आत्मा और ‘हम’ जीव के मोह रूपी बन्धन को काटकर अपने में जोड़कर, अपनी शरणागति प्रदान कर सुधार करते हुए, उद्धार हेतु स्वीकार कर लें। सम्पूर्ण-सत्ता-शक्ति-सामर्थ्यवान होने के कारण एक मात्र ‘तात्त्विक’ रूप अवतारी में ही यह क्षमता है जो पूर्णतया उद्धार कर सके अन्यथा कोई पुरुष, महापुरुष, भले ही वह आध्यात्मिक सिद्ध क्यों न हो, वह ‘हम’ जीव से ‘हम’ आत्मा तक तो ले जा सकता है परन्तु ‘हमार’ से मुक्ति नहीं करा सकता, चाहे लाख-करोड़ सिर पटक लें।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस