‘सूर्य’ एक ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ (Fluid) है जो शक्ति रूपा ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय पुंज’ (Supper Fluid) से उत्पन्न या विखंडित होकर प्रचण्ड हुआ है, जो शक्ति रूपा ज्योति का स्वाभाविक गुण है। इस प्रकार ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ शून्य आकाश में भ्रमण करते हुये ‘आत्म’ शब्द रूप सत्ता-सामर्थ्य से टकराकर, ‘आत्म’ शब्द जो शून्य आकाश में ज्योति-पुंज के पश्चात् होने के कारण ‘सः’ शब्द रूप कहा जाने लगा था। ‘सः’ शब्द से युक्त ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ चूँकि काफी तीब्र गति (सूर) में भ्रमण करता था राशि नाम, नाम में भी सः ही था यही आगे चलकर ‘सूर’ ही ‘सूर्य’ शब्द से जाना जाने लगा। पुनः ‘सः’ शब्द रूप सत्ता-सामर्थ्य से शक्तिरूपा ज्योति-पुंज आपस में टकराये अथवा आपस में जो घर्षण हुआ उससे शक्ति रूपा ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ विखंडित होकर नवग्रहों के रूप में पृथक-पृथक भ्रमण करते हुये सूर्य शब्द ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप में सौर परिवार अथवा सौर मण्डल के रूप में कायम हो गए। जिन नवग्रहों से युक्त सौर-मण्डल अथवा सौर-परिवार है, उसमें से एक गृह के रूप में पृथ्वी भी है।
सौर मण्डल के अन्तर्गत पृथ्वी भी एक गृह के रूप में कायम हो गयी। चूँकि पृथ्वी भी सूर्य से ही उत्पन्न अथवा विखण्डित क्रिया से पृथक होकर अन्य ग्रहों की भाँति यह भी सूर्य शब्द रूप पिता तथा ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप माता के इर्द-गिर्द भ्रमण करने लगी। जिस प्रकार पुत्र पिता और पुत्री माता प्रधान क्रम में रहते हैं अर्थात् पुत्र पिता के गुण रूप एकरूपता और स्थिरता से युक्त रहते हुये पिता-पद्धति (पैतृक) रूप सिद्धान्त पर स्वभावतः चलने लगते हैं, और पुत्री माता के गुण पृथकता और परिवर्तनशीलता से युक्त रहते हुये माता पद्धति (मातृक) रूप सिद्धान्त पर स्वभावतः चलने लगती है। ठीक इसी प्रकार ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ जो अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता और परिवर्तनशीलता के कारण पुनः विखण्डित हुआ जिसमें से नव ज्योतिष्छटाएँ पृथक हुई। पृथकता के कारण जिस पर यह मानव शरीर विचरण करता है, इसका नाम पृथ्वी पड़ा। चूँकि पृथ्वी शब्द से युक्त होने के कारण यह ‘पिण्ड’ (पृथ्वी) ने भी एक परिवार बसा लिया। ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप सूर्य से उत्पन्न और पृथक होने वाली ‘ज्योति पुंज’ अथवा ‘तेज-पुंज’ रूप पृथ्वी भ्रमण करते हुये किस प्रकार ‘तेज-पुंज’ ही ठोस रूप ‘पिण्ड’ का रूप ले लेती है अथवा पिण्ड रूप में परिवर्तित हो जाती है, अब यह जानना-देखना और समझना है।
यहाँ ‘तेज-पुंज’ से ‘पिण्ड’ रूप में परिवर्तित होने से पहले यह भी जान लेना उचित ही होगा कि- ‘पृथ्वी’ शब्द रूप पिता और ‘तेज-पुंज’ से ‘पिण्ड’ रूप माता के आपस में मिलन अथवा घर्षण के कारण ‘तेज-पुंज’ पुनः अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता और परिवर्तनशीलता के कारण विखण्डित हुई जिसमें से चन्द-रूप (कुछ) ज्योति-पुंज अथवा ‘तेज-पुंज’ छिटक अथवा पृथक होकर पिता रूप ‘पृथ्वी’ शब्द माता रूप ‘तेज-पुंज’ के इर्द-गिर्द भ्रमण करने लगा। चूँकि यह ज्योति-पुंज अथवा तेज-पुंज अन्य तारों, सूर्य, पृथ्वी आदि ‘तेज-पुंजों’ से बहुत ही छोटा था। इसीलिए इसे ‘चन्द्र’, पुनः ‘चन्द्रमा’ नाम से कहा जाने लगा। चन्द्रमा भी स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण पृथ्वी से अलग होकर शून्य आकाश में भ्रमण करने लगा। चूँकि अभी तक इसे अपना अलग परिवार बसाने का मौका नहीं मिल पाया है, इसीलिए अभी यह शब्द से युक्त होकर पृथ्वी के इर्द-गिर्द भ्रमण कर रहा है। चूँकि शब्द रूप पिता से उत्पन्न शब्द अपनी पैतृकता के आधार पर पिता के गुण रूप में रहते हुये पिता के स्थान को नहीं छोड़ते, परन्तु रूप रूपी माता से उत्पन्न रूप होते ही मातृकता के सिद्धान्त अनुसार होकर भ्रमण करते हैं।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस