शरीर कोषों (Cell) से निर्मित वह आकृति है, जिसमें आत्मा (Soul) जीव (Self) बनकर तथा जिससे संसार में कर्मकर तदनुसार भोग भोगती है।
शरीर की उत्पत्ति चार प्रकार – जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज से होती है और यह चौरासी लाख प्रकार की आकृतियों में जानी व देखी जाती है जिसमें मनुष्य शरीर एक श्रेष्ठतम् और सर्वोत्तम आकृति है। चौरासी लाख आकृतियों में मनुष्य रूप आकृति के समान अन्य कोई आकृति नहीं होती है अर्थात मनुष्य शरीर सृष्टि की समस्त योनियों में श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम योनि काही जाती है जो मात्र प्रभु कृपा पर ही आधारित है। यह शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ होता है। यह शरीर मोक्ष को प्राप्त कराने वाले समस्त साधनों का खजाना होता है। इसे पाकर भी जो परमधाम जो परमात्मा का एकमात्र निवास स्थान है, को नहीं प्राप्त कर लेता अथवा अपना सुधार एवं उद्धार नहीं कर लेता है वह मनुष्य परलोक और मृत लोक में भी सिर धुन-धुन कर पछताता है कि हे काल महाराज ! हे समय ! हे काल भगवान ! मुझे अपने बताया नहीं; ओह ! मेरा कर्म ही खराब था, कर्म ने ही साथ नहीं दिया; और मुझे ईश्वर ने फँसा दिया, मेरा उद्धार नहीं कराया आदि-आदि परन्तु वह काल, कर्म और ईश्वर पर मिथ्यादोषारोपण लगाता रहता है क्योंकि काल तो बालकपन दिखाता है चेतने (जानने-समझने) के लिए परन्तु चेतते नहीं, पुनः युवावस्था दिखाता है कि अब सक्षम हो गए हो, अब भी चेत जाओ, प्रभु को जान समझ, माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री तथा धन-दौलत आदि ममता तथा आसक्ति में मत फँस, उम्र की तरफ देख—काल तेरे सिर पर सवार है, कब तुझे शरीर से निकाल कर हथकड़ी लगाकर लेकर चल देगा, इसका ठिकाना नहीं है। उसके बाद बुढ़ापा दिखाकर समाज में धर्मात्मा-महात्माओं द्वारा धिक्कार पाता है कि अब तो जाना ही है, अरे मूर्ख ! अब भी चेत जा ! प्रभु को जान-समझ व पहचान कर कि आखिरकार शरीर छोड़कर तो कहीं न कहीं तो जाना ही है। इसलिए कहाँ जाना है ? कैसे जाना है ? किसके साथ जाना है आदि आदि ! क्यों आसक्ति एवं ममता के द्वारा कामिनी और कंचन रूपी संसार में फँसे हो, अरे जड़ ! अरे मूढ़ ! ये सब जड़ हैं, इसमें मत फँस आदि बार-बार बताया जाता है फिर भी चेतता नहीं और उल्टा काल को ही दोषारोपित करता है।
जब आत्मा परमात्मा से बिछुड़ (छिटक) कर भू-मण्डल पर आती है, सृष्टि के अन्तर्गत आती है, संसार के अन्तर्गत आती है तो वह तब तक निर्विकार, निर्विकल्प, निराकार रूप में सर्वत्र स्वछन्द गति से विचरण करती रहती है जब तक कि वह किसी सूक्ष्म आकृति के रूप को धारण नहीं करती। यह आत्म ज्योति जैसे ही किसी स्थूल आकृति से सम्बंधित होती है अथवा सम्बन्ध स्थापित करती है वैसे ही इन दोनों रूपों (आत्म ज्योति और स्थूल शरीर) से अलग एक तृतीय रूप धारण करती है अथवा तीसरे रूप में परिवर्तित हो जाती है जो सूक्ष्म आकृति या सूक्ष्म शरीर या जीव है। यह जीव आत्म ज्योति और स्थूल शरीर के बीच दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। जीव वह सूक्ष्म आकृति है जो आत्म ज्योति और स्थूल आकृति दोनों से युक्त रहते हुये भी दोनों से अलग अपना रूप, कार्य एवं कार्य क्षेत्र के रूप में क्रियाशील तथा उसके परिणाम स्वरूप पाप-पुण्य भुगतता रहता है। यह बार-बार नयी-नयी स्थूल आकृतियों (शरीरों) को धारण करता हुआ नाना विधि-विधानों से युक्त होकर कर्म करता रहता है तथा उसका परिणाम (पाप-पुण्य) स्थूल आकृतियों (शरीरों) को छोड़-छोड़ कर भुगतता रहता है।
जीव जिन-जिन स्थूल आकृतियों को धारण करके कर्म करता रहता है तथा उसके परिणाम स्वरूप स्थूल आकृतियों को छोड़-छोड़ कर सूक्ष्म रूप से पाप-पुण्य भुगतता रहता है उन-उन स्थूल आकृतियों को ही योनि कहा जाता है, जो चार विभागों – जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज के अन्तर्गत चौरासी लाख प्रकार का है, इसी को चौरासी लाख योनि कहा जाता है।
उपर्युक्त जिन चौरासी लाख प्रकार की योनियों का वर्णन है, उन योनियों की प्राप्ति कर्म एवं संस्कारों के आधार पर होती रहती है। जिसका जैसा कर्म एवं संस्कार होता है उसको वैसी ही योनि की प्राप्ति होती है। अर्थात “जैसी करनी, वैसी भरनी” इन योनियों के अन्तर्गत ही मानव शरीर भी एक योनि ही है परन्तु उसकी प्राप्ति मात्र कर्म एवं संस्कारों पर ही आधारित नहीं रहती है। यह जीव लाखों-लाखों योनियों में भ्रमण करते हुये पुण्य की पूँजी (राशि) हो जाता है, तत्पश्चात प्रभु की जब अहैतुकी कृपा होती है तब सूक्ष्म शरीर रूपी जीव को स्थूल मानव शरीर की प्राप्ति होती है। चौरासी लाख योनियों में यह योनि एक प्रकार से जीव के लिए परीक्षा की योनि होती है। जिस प्रकार एक विद्यार्थी 364 दिन जब पढ़ लेता है तो उसको अपनी कक्षा से उत्तीर्ण (मुक्त) होने के लिए 1 दिन का उसको परीक्षा का अवसर मिलता है, ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर यानि जीव को जब वह 83,99,999 तिरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे योनियों में भ्रमण कर लेता है तब उसे इन योनियों से मुक्त (उत्तीर्ण) होने के लिए मनुष्य योनि का अवसर मिलता है। जिस प्रकार अपनी कक्षा से उत्तीर्ण होने के लिए परीक्षा अत्यावश्यक होती है, ठीक उसी प्रकार जीव को इस जनम-मरण के विधान से मुक्त होने के लिए मनुष्य योनि अत्यावशक होती है। इतना ही नहीं, मनुष्य योनि के सिवाय अन्य शरीरों में मुक्ति हो ही नहीं सकती। हालाँकि अपवाद स्वरूप जटायु आदि को मुक्ति गिद्ध योनि में ही मिल गई थी परन्तु यह तब हुआ जब जटायु ने मनुष्य जैसा कार्य अर्थात सीता जी को छुड़ाने हेतु अपने स्थूल शरीर की जरा सी भी परवाह नहीं की। अतः उसके त्याग को देखते हुये परमात्मा के अवतार रूप श्री राम जी ने अपनी विशेष कृपा पात्र बनाकर उद्धार (मुक्त) कर दिया था परन्तु इससे यह सिद्धांत नहीं बना कि जीव को अन्य योनियों में भी मुक्ति मिल सकती है। यह सिद्धांत कि मुक्ति जब भी मिलेगी तब मनुष्य योनि में ही मिल सकती है अन्य योनियों में नहीं, यह सिद्धांत आज भी उसी तरह स्थिर है और आगे भी रहेगा । जनम-मरण का चक्र तब तक लगा रहता है जब तक कि परमतत्त्वम् रूप परमात्मा अपने परमधाम से भूमण्डल पर अवतरित होकर धारण करने वाले शरीर जो अवतारी कहलाता है, का कृपा-पात्र बनकर मुक्ति हेतु स्वीकार नहीं कर लिया जाता।
जनम-मरण रूप चक्र – सूक्ष्म शरीर द्वारा स्थूल शरीर का धारण किया जाना जनम तथा स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म रूप से सूक्ष्म जगत् अर्थात स्वर्ग-नरक या जन्नत-जहन्नुम या हिबुन-हेल में विचरण करना मरण (मृत्यु) है। बार-बार सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म शरीरों के रूप में परिवर्तित होते रहना जनम-मरण रूप चक्र है।
सृष्टि चक्र – चेतन आत्मा और शक्ति के द्वारा जीव और वस्तु रूप में परिवर्तित होकर आपसी सहयोग के माध्यम से कर्म करते और भोग भोगते हुये बार-बार कारण-सूक्ष्म-स्थूल तत्पश्चात स्थूल-सूक्ष्म-कारण आकृतियों (शरीरों और वस्तुओं) में परिवर्तित होते रहना ही सृष्टि चक्र है।
आत्मा और शक्ति – परमात्मा से छिटकी हुई चेतना युक्त आत्म ज्योति मात्र आत्मा और चेतना रहित ज्योति मात्र शक्ति है।
आत्मा (Soul) और शक्ति (Power) दोनों ही ज्योति मात्र ही होती हैं फिर भी ज्योति चेतनता (Consciousness) से युक्त होती है, वही आत्मा अथवा आत्म ज्योति अथवा दिव्य ज्योति (Devine Light) है, ठीक इसके विपरीत जो ज्योति चेतनाहीन (Conscious less) होती है मात्र वही शक्ति या विद्युत या ऊर्जा अथवा ज्योति (Light) मात्र ही है।
जीव रूप धारण कर कोषिकीय पद्धति (Cell System) से संसार में कार्य करने वाली ज्योति ही आत्मा है तत्पश्चात शक्ति रूप और वस्तु रूप में परिवर्तित होकर जीवों के साधन के रूप में सहयोगी रूप में रहते हुयेआणविक-पद्धति (Atomic System) से प्रयोग में आने वाली ज्योति मात्र ही शक्ति (Power) है।
कोषिकीय पद्धति (Cell System) – जीव द्वारा इच्छा और शरीरों द्वारा आपस में मैथुन के माध्यम से शुक्र (Semen) रूप में परिवर्तित होकर कोष (Cell) तत्पश्चात् बीज (Sperm) के माध्यम से गर्भाशय (Ovary) में प्रविष्ट होकर आकृति (शरीर) की रचना (Creation) आदि विधि विधान कोषिकीय पद्धति है। यह आत्मा द्वारा जीव रूप धारण कर कार्य करने की एक मानवता-पद्धति है।
आणविक पद्धति (Atomic System)- शक्ति द्वारा आकाश में वायु (Gas) तत्पश्चात वायु के आपसी संघर्ष से तेजस्व रूप अग्नि (Fire) होकर वायु तथा ताप के माध्यम से जल बनकर तत्पश्चात आकाश, वायु, अग्नि और जल के आपसी संघटन (हिलोरें तत्पश्चात् जमाव) के रूप में परिवर्तित होकर वस्तु रूप विभिन्न निर्जीव आकृतियों के रूप में जीवधारी (सजीव) आकृतियों (शरीरों) के कर्म एवं भोग में प्रयुक्त होना आणविक पद्धति है। यह शक्ति द्वारा अक्षय-भंडार (Super Fluid) तत्पश्चात् मेसान् रूप में होते हुये इलेक्ट्रॉन, पाजिट्रान और न्यूट्रान तत्पश्चात् संघटित क्रिया से एकीकृत रूप धारण कर परमाणु रूप होते हुये अणु बनता है। तत्पश्चात् अणुओं की संघटित क्रिया से ही भिन्न-भिन्न वस्तुओं का निर्माण होता है।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस