पिण्ड (शरीर) ब्रह्माण्ड का ही संक्षिप्ततः सांकेतिक रूप है, जिसमें मात्र संकेत रूप में ही ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुएं ही इस पिण्ड में दिखलाई देती हैं, क्षमता और आकार में देखना चाहे, तो यह सम्भव ही नहीं है। इस असम्भाव्यता के बावजूद भी योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा अपने मिथ्याज्ञानभिमान के कारण इस पिण्ड को ही यथार्थतः ब्रह्माण्ड कह-कह कर यथार्थतः दिखलायी देते हुये ब्रह्माण्ड को मिथ्या घोषित कर देते हैं। जरा सा भी यह नहीं सोचते कि जब ब्रह्माण्ड ही मिथ्या हो जाएगा, तो उसी का सांकेतिक संक्षिप्त रूप पिण्ड कैसे सत्य हो सकता है ? यथार्थता को उदाहरण द्वारा समझें कि पृथ्वी और पृथ्वी का सांकेतिक संक्षिप्त रूप ग्लोब (भू-गोल) में पढ़ाये जाने से सम्बंधित गोल-पिण्ड दो रूप में होता है –
एक – पृथ्वी पर भी – भारत, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, आस्ट्रेलिया आदि-आदि देश रहते हैं और दूसरे- ग्लोब पर भी - भारत, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, आस्ट्रेलिया आदि-आदि देश रहते हैं। अब आइए इसमें यथार्थता को देखें कि क्या है ? यथार्थतः तो यह दिखाई देता है कि पृथ्वी पर ही सभी देश हैं, दूसरे शब्दों में समस्त देशों का संयुक्त रूप ही पृथ्वी है जिसमें समस्त सागर भी स्थित हैं। ग्लोब पर न तो कोई देश होता है और न कोई सागर ही। फिर भी पृथ्वी पर कहीं भी खड़ा होने पर स्थूल दृष्टि से समस्त पृथ्वी नहीं दिखलाई देती है परन्तु सूर्य चन्द्रमा रूपी दृष्टि जिसके पास हो, वह कह सकता है कि मैं अपने स्थान से ही समस्त पृथ्वी और मात्र पृथ्वी ही नहीं सूर्य-मण्डल से युक्त आसमान तक देखता हूँ। यह ज्ञान दृष्टि की बात है परन्तु ग्लोब पर समस्त पृथ्वी ही दिखलाई देती है, लेकिन न तो उस पर देश है और न सागर ही है। रेखांकित और लिखित चित्रित में ही मात्र एक पिण्ड मात्र है। ग्लोब यदि यह कहते हुये फूले कि समस्त देश और सागर तो मेरे अन्दर है, बाहरी दुनिया सारी मिथ्या है, तो उसका यह कहना ही मिथ्या है क्योंकि यथार्थतः सत्य पृथ्वी है, ग्लोब नहीं। ग्लोब तो देशों, सागरों और पहाड़ों का रेखांकित लिखित और चित्रित रूप मात्र पिण्ड है। यही हाल ज्ञानी और योगी का है। योगी ग्लोब और ज्ञानी पृथ्वी होता है। दूसरे शब्दों में योगी का सम्पूर्ण कार्यक्षेत्र मात्र एक पिण्ड होता है; ज्ञानी का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड।
शरीर, ब्रह्माण्ड का एक संक्षिप्त एवं सांकेतिक पिण्ड मात्र होता है जबकि ब्रह्माण्ड शरीर का विराट या परमार्थिक रूप होता है। जीव से युक्त पिण्ड या शरीर स्वराट और परमार्थिक रूप होता है। जीव से युक्त पिण्ड या शरीर स्वराट और परमेश्वर से युक्त ब्रह्माण्ड विराट रूप शरीर है। इसी प्रकार जीव से युक्त शरीर पार्थिव शरीर और परमेश्वर से युक्त विराट शरीर परमार्थिक है।
विराट अथवा परमार्थिक शरीर में चौदह भुवन एवं तीन लोक
मनुष्य और जीवात्मा से युक्त शरीर स्वराट तथा ब्रह्माण्ड और परमात्मा से युक्त शरीर विराट अथवा परमार्थिक शरीर है। सर्वप्रथम विराट शरीर तीन भागों में बंटा हुआ है जिसे तीनों लोक कहा जाता है।
मनुष्य और जीवात्मा से युक्त शरीर स्वराट तथा ब्रह्माण्ड और परमात्मा से युक्त शरीर विराट अथवा परमार्थिक शरीर है। सर्वप्रथम विराट शरीर तीन भागों में बंटा हुआ है जिसे तीनों लोक कहा जाता है।
तीन लोक – परमेश्वर का विराट शरीर तीन भागों में बंटा हुआ है, जो तीन लोक के नाम से जाना जाता है। इन तीन लोकों में क्रमशः पहले लोक में सात भुवन, दूसरे में चार भुवन और तीसरे लोक में तीन भुवन पड़ते हैं। इस प्रकार तीनों लोक ही चौदह भुवनों में विभाजित हैं, जैसा कि इसी पैरा में अभी-अभी बताया गया है। परमेश्वर की कमर से नीचे पहला लोक, कमर और सिर के मध्य भाग वाला दूसरा लोक और सिर भाग तीसरा लोक होता है। यह तीनों मिलकर ही परमेश्वर का शरीर है जो विराट शरीर अथवा परमार्थिक शरीर के नाम से जाना जाता है।
चौदह-भुवन – परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर के विराट-शरीर अथवा परमार्थिक-शरीर मुख्य रूप से सर्वप्रथम- एक विराट शरीर; पुनः दो – व्यावहारिक या पार्थिव शरीर तथा विराट या परमार्थिक-शरीर; पुनः तीन – पाताल या अधः लोक; मृत्युलोक और भूवलोक और पुनः चौदह – तल, वितल, सूतल, महातल, तलातल, रसातल और पाताल रूप सात भुवन जो अधः लोक के अन्दर हैं; भूः, भुवः, स्व, महः नामक चार भुवन मृत्युलोक में और जनः तपः और सत्य-लोक नामक तीन भुवन भुवर्लोक के अन्तर्गत आते हैं।
विराट शरीर में चौदह भुवनों का स्थान – विराट शरीर अथवा परमार्थिक शरीर के पैर के निचले तलवे में – तल; पैर के ऊपर – वितल; घुटने के पीछे- भूतल; जंघा में – महातल; जंघामूल में – तलातल; गुह्यदेश में – रसातल; और कटि प्रदेश (कमर) में पाताल से युक्त सातों भुवन अधः लोक में हैं; पुनः नाभि में – भूः; नाभि से चार अंगुल ऊपर – भुवः, हृदय में स्वः, कण्ठ में महः नामक चारों भुवन मध्य या मृत्युलोक में है और मुख में जनः, ललाट में तपः और ब्रह्मरन्ध्र या सहस्रार में सत्यलोक नामक तीनों भुवन ऊर्ध्व या भुवर्लोक हैं।
परमार्थिक शरीर में सात सागर – विराट शरीर में सात सागर भी नियत है- (1) क्षार सागर (2) क्षीर सागर (3) सुरा सागर (4) दधि सागर (5) सुस्वाद-जल सागर (6) घृत सागर और (7) जल सागर ।
सागरों का स्थान – मूत्राशय में क्षार सागर; स्तनों में क्षीर सागर अथवा दूध का सागर; कफ में सुरा सागर; रक्त में दधि सागर; कण्ठ में सुस्वाद जल का सागर; मज्जा में घृत सागर और पेट में जलाशय में जल सागर होता है। इस प्रकार परमार्थिक विराट शरीर में उपरोक्त सातों नियत हुये हैं।
अब तक हम लोगों द्वारा कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्व गति के अन्तर्गत मूलाधार आदि षट-चक्रों तथा सहस्रार आदि को स्वराट तथा विराट आदि को देखा गया। अब उसकी अधोगति देखी जाय –
कुण्डलिनी की अधोगति
यथार्थतः एक ही समान होता है।
योगी-महात्मा और वैज्ञानिक
सामान्य मानव तथा वैज्ञानिक को कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि विज्ञान ने तो समाज को काफी उन्नति के स्थान पर पहुँचाया है परन्तु अध्यात्म ने क्या किया ? इसी प्रकार योगी-महात्मा को भी कभी भी यह नहीं कहना चाहिए कि विज्ञान मात्र विनाशक साधन और जानकारी के सिवाय कुछ है ही नहीं, क्योंकि विज्ञान ने तो समाज को शान्ति और आनन्द शून्य बना दिया है अर्थात् विज्ञान ने शान्ति और आनन्द हेतु क्या किया ?
वर्तमान में अध्यात्म और विज्ञान को लेकर योगी-महात्मा और वैज्ञानिकों में आपस में आपस में विरोध और टकराव और विरोध को देखते ही पुनः उसी परमेश्वर का अवतरण होकर अपने अनुकूल शरीर धारण कर अपनी प्रक्रिया चालू कर दी है, जिसकी विश्व्स्तरीय भविष्यवक्तागण, ज्योतिषीगण, आध्यात्मिक महात्मागण सभी घोषित करते हुये स्वीकार कर रहे हैं। विशेषता और महत्ता तो इस बात की है कि कौन उनको तथा उनकी प्रक्रिया को जान-पहचान कर सेवार्थ सहयोग देता है और न जानते और न मानते हुये उनसे और उनकी प्रक्रिया में टकराकर कौन विनाश को प्राप्त होता है।
परमब्रह्म परमेश्वर के अवतरण की परिस्थिति
विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही परमब्रह्म परमेश्वर से उत्पन्न शरीर और जीवात्मा से सम्बंधित दो पद्धतियाँ हैं, जो वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महात्माओं द्वारा जो कि परमेश्वर के प्रतिनिधि होते हैं, प्रतिपादित होती हैं। ये दोनों ही परमेश्वर द्वारा प्रेषित किए जाते हैं कि नाना विधि-विधानों और साधनों और साधना से युक्त क्रिया-प्रक्रिया द्वारा मानव समाज को शान्ति और आनन्द के रूप में नाना प्रकार की सामग्रियों और नाना प्रकार की साधना प्रक्रियाओं द्वारा कायम करें और कायम रखें। परन्तु यहाँ आकर दोनों प्रकार के प्रतिनिधि लोग आपस में मिलकर कार्य करने के बजाय आपस में विरोधी रूप लेकर एक दूसरे को मिथ्या और महत्वहीन साबित करने में लग गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि जिस शान्ति और आनन्द को मानव समाज में स्थापित और उपलब्ध कराने हेतु भेजे गए थे, आपस में एक दूसरे को मिथ्या और महत्वहीन घोषित करते हुये मानव समाज में ऐसी धारणा स्थापित कर दी कि दोनों के अनुयायी एक दूसरे से घृणा और द्वेष करने लगे। समाज में जो शान्ति और आनन्द था वह भी लुप्त हो गया और पूरा का पूरा समाज ही शान्ति और आनन्द शून्य हो गया और जिधर देखिए उधर शान्ति और आनन्द हेतु संघर्ष हो रहा है। अब स्थिति इस रूप में पहुँच गयी है कि अब निकट भविष्य में ही ‘समग्र जन-क्रान्ति’ हो। अब तक के प्रमाणों से भी प्रमाणित ही होता है कि जब घोर अशान्ति की लहर भू-मण्डल पर छा जाती है उसी वक्त परमप्रभु भू-मण्डल पर आता है। इसीलिए अब वही परमप्रभु भू-मण्डल पर पुनः आया है और सभी को ठीक करने वाली क्रिया-प्रक्रिया में जुट गया है। बात केवल जानने और पहचानने की है।
परमेश्वर का योगी-महात्माओं और वैज्ञानिकों को शान्ति और आनन्द हेतु मिलकर कार्य करने का निर्देश
प्यारे योगी-महात्माओं और वैज्ञानिकों ! आपस में मिलकर कार्य करने में ही सबकी भलाई है। कभी भी एक दूसरे को मिथ्या भ्रामक एवं महत्वहीन घोषित न करें। आप योगी-महात्मा हों या वैज्ञानिक; थोड़ा भी विचार तो करें कि दोनों का लक्ष्य मात्र शान्ति और आनन्दमय समाज करना ही तो है। क्या आज तक का कोई प्रमाण ऐसा है कि आपसी डाह-द्वेष, घृणा और संघर्ष से किसी को कभी भी शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हुई है ? विचारों द्वारा शूध तो करें; अन्त में यह निष्कर्ष निकलेगा कि कभी भी, कहीं भी और किसी को भी आपसी डाह, द्वेष, घृणा और संघर्ष के माध्यम से शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हुई है। वह भी जब विज्ञान और अध्यात्म ही यदि टकरा गए; जैसा कि वर्तमान में है, तो और ही सोचनीय और विचारणीय बात यह हो जाती है कि क्या शरीर और जीवात्मा आपस में टकराकर शान्ति और आनन्द से कायम रह सकते हैं ? कदापि नहीं। कभी नहीं।
विज्ञान अध्यात्म का शरीर और अध्यात्म विज्ञान की जीवात्मा
चूँकि विज्ञान शरीर और जड़-जगत् का क्रमबद्ध प्रायोगिक ज्ञान है तो अध्यात्म शरीर और जड़-जगत् में निहित आत्म-शक्ति का साधनात्मक ज्ञान है। दोनों ही प्रायोगिक अध्ययन पद्धति हैं। इसीलिए यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि विज्ञान अध्यात्म का शरीर और अध्यात्म विज्ञान की जीवात्मा होती है।
वज्ञानिक लोग पदार्थों के संघटित रूप को तो जानते ही नहीं कि आखिरकार विश्व की समस्त वस्तुएं कैसे बन जाया करती हैं ? उनके लिए कौन सी प्रयोगशाला है और कहाँ पर है ? प्रयोगशाला में वस्तुएं कहाँ से आती हैं ? उस प्रयोगशाला का वैज्ञानिक कौन है ? वह कहाँ रहता है ? विज्ञान ने बहुत प्रगति की है परन्तु आजतक एक भी जौ, चना, गेहूँ, चावल, अरहर, आलू, आम, नींबू, अमरूद, केला, सेव, सन्तरा आदि-आदि में से एक भी तो कुछ पैदा करके नहीं दिखलाया ।
पिछले प्रकरणों में हम लोगों ने देखा कि किस प्रकार अक्षय-बिन्दु ही गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ के रूप में विकसित हो जाता है। अब अगले प्रकरणों में यह देखना है कि ‘हिरण्य’ विकास क्रम से किस प्रकार शरीर के रूप में विकसित हो जाता है। जिस प्रकार अक्षय-बिन्दु विकास-पद्धति के अनुसार विकसित होकर ‘हिरण्य’ रूप में हो जाता है, ठीक उसी प्रकार इलेक्ट्रान संघटन पद्धति के अनुसार संघटित होकर पाजीट्रान से मिलकर न्यूट्रान के सम्बन्धों से सम्बंधित होकर तीनों संयुक्त रूप में ‘परमाणु’ बन जाता है और संघटन क्रम से ‘अणु’ रूप में परिवर्तित हो जाता है।
अब तक हम लोगों द्वारा कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्व गति के अन्तर्गत मूलाधार आदि षट-चक्रों तथा सहस्रार आदि को स्वराट तथा विराट आदि को देखा गया। अब उसकी अधोगति देखी जाय –
कुण्डलिनी की अधोगति
जीव से हिरण्य-गर्भ तक – जब मनुष्य संतानोत्पत्ति करना चाहता है और स्त्री-पुरुष संतानोत्पत्ति भाव में आपस में मैथुनी क्रिया बार-बार करते हैं, तब पुरुष शरीर स्थित योग निद्रा में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति जागती है। जागने पर जब स्त्री-पुरुष द्वारा अपनी अधोगति रूप क्रिया-कलाप देखती है तो बहुत क्रोधित होती है और उसी क्रोधवास्था में ही फुफकार करती है जिससे ‘अहम्’ रूप जीव एक तेज प्रवाह युक्त ‘अक्षय बिन्दु’ (Existing drop of self that moves rapidly) रूप में परिवर्तित होकर तुरन्त शुक्र (Semen) रूप में परिवर्तित हो जाता है। विकास क्रम में वह पुनः कोष रूप (Cell Form) में होते हुये सुरक्षा हेतु धातु में प्रवेश कर बीज (Sperm) रूप में एकीकृत हो जाता है तत्पश्चात् वह स्त्री के गर्भाशय में अनुकूल परिस्थिति पाकर स्वर्णिम अंडाकार (हिरण्य-गर्भ) रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह कुण्डलिनी-शक्ति की अधोगति प्रक्रिया है।
हिरण्य-गर्भ से शरीर तक - गर्भाशय के अन्तर्गत जल मिश्रित एक द्रव पदार्थ होता है जिसमें यह स्वर्णिम-अण्डाकार रूप हिरण्य-गर्भ इधर-उधर डगरता (नाचता) हुआ कायम रहता है, इसी क्रम में विकास-क्रम से हिरण्य-गर्भ में ऊपरी परत एक प्रकार का छाल का रूप ले लेती है जो आगे चलकर त्वचा कहलाई। चेतन से शरीर में परिवर्तित होने के लिए एक तरफ चेतन आत्मा (सोल) अपनी पद्धति के अनुसार क्रियाशील रहती है, दूसरी तरफ शक्ति (पावर) आत्मा के सहयोगार्थ साधन के रूप में परिवर्तित होकर सहयोग देने हेतु तैयार रहती है।
चूँकि शक्ति (पावर) से पदार्थ (मैटर) रूप में परिवर्तित होने के लिए सृष्टि-विधान के अनुसार पाँच श्रेणियों से गुजरना पड़ता है। सर्वप्रथम आकाश; दूसरी - वायु; तीसरी- अग्नि; चौथी – जल और पाँचवी – पृथ्वी। इसलिए जब शरीर रचना होने लगी, तो इन पाँचों स्थूल तत्त्वों से निर्मित यह शरीर अपने विषयों के प्रवेश एवं निकास हेतु स्थान सुरक्षित रखा जो इन्द्रियों के नाम से जाना जाने लगा। इन इन्द्रियों का कार्य दो भागों में बंट गया। प्रथम भाग ज्ञानेंद्रियाँ; दूसरा भाग कर्मेन्द्रियाँ। समस्त इन्द्रियों का संयुक्त आकृति ही शरीर है।
गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में इन्द्रियों की उत्पत्ति - गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में दो प्रकार की इन्द्रियों के लिए जो स्थान रखा गया जिसमें प्रथम भाग वाली इंद्रियाँ जो ज्ञानेंद्रियाँ अथवा वस्तुगत अपने-अपने विषयों की जानकारी कराने वाली इंद्रियाँ हैं। चूँकि स्थूल रूप पदार्थ तत्त्वों की संख्या पाँच है और स्थूल पदार्थ रूप पाँच तत्त्वों को अपने व्यवहार अथवा जानकारी हेतु प्रत्येक के अपने-अपने विषय होते हैं, जिसके माध्यम से उस पदार्थ तत्त्व की जानकारी होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिन-जिन सूक्ष्म तत्त्वों से जिन-जिन स्थूल पदार्थ तत्त्वों की उत्पत्ति होती है वही उन-उन स्थूल पदार्थ तत्त्वों का विषय है। स्थूल पदार्थ रूप तत्त्वों की संख्या पाँच है। इसीलिए उसके विषय भी पाँच ही हुये। इसीलिए पाँच विषयों को जानने-समझने हेतु प्रत्येक विषय हेतु एक-एक ज्ञानेन्द्रिय ‘हिरण्य’ के अन्तर्गत क्रमिक रूप में जैसे-जैसे विषय रूपी सूक्ष्म तत्त्वों की उत्पत्ति और क्रमिक विकास के क्रम से स्थूल-पदार्थ तत्त्वों की उत्पत्ति और विकास बाह्य सृष्टि में होता है, ठीक उसी क्रम में उसी विकास-पद्धति से ज्ञानेन्द्रियों की भी उत्पत्ति और विकास होता है।
क्रमशः उत्पत्ति और विकास – गर्भ स्थित हिरण्य में सर्वप्रथम कर्णेन्द्रिय (कान) की उत्पत्ति होती है जो प्रथमतः उत्पन्न स्थूल पदार्थ तत्त्व के विषय ‘शब्द’ को पकड़ने और मस्तिष्क में कार्य हेतु पहुँचाने का कार्य करती है। चूँकि आकाश-तत्त्व की उत्पत्ति शब्द से ही होती है और इधर चेतना युक्त जीव रूप ‘अहम्’ भी शब्द ही होता है; पुनः ‘अहम्’ शब्द रूप जीव से उत्पन्न ‘एक तेज प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु’ भी एक प्रकार का शब्द ही होता है जो तेज से युक्त होता है।
नाद विन्दु | अक्षय विन्दु | इलेक्ट्रान |
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योगी के लिए | सांसारिक के लिए | वैज्ञानिक के लिए |
‘अक्षय-बिन्दु’ जीव से उत्पन्न एक प्रकार का प्रवाह युक्त तेज होता है, जिसका विकसित स्थूल ठोस रूप गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ होता है। चूँकि हिरण्य की उत्पत्ति और विकासक्रम से शरीर रूप में परिवर्तन रूप भी गर्भ में ही हो जाता है, इसीलिए इसे हिरण्य-गर्भ नाम से जाना जाता है।
‘अक्षय-बिन्दु’ वह केंद्र बिन्दु है जो सूक्ष्म से स्थूल का और स्थूल का सूक्ष्म से सम्बन्ध स्थापित करता या कराता है। सजीव का विधान हो अथवा निर्जीव का; दोनों के केंद्र में यह अक्षय-बिन्दु ही निहित होता है। सजीव के अन्तर्गत यह अक्षय बिन्दु और निर्जीव के अन्तर्गत यही इलेक्ट्रान है।
चूँकि चेतन-आत्मा से जीव उत्पन्न होता है और पुनः जीव से यह अक्षय-बिन्दु उत्पन्न होता है। अतः इसकी श्रंखला चेतना और विचार से युक्त होती है। इसलिए इसमें भी चेतना और विचार से सहायता रूप कार्यकारी क्षमता मिलती रहती है, जिसके कारण यह स्वतः ही क्रियाशील आभासित होता रहता है परन्तु चेतनाहीन शक्ति ध्वनि और प्रकाश (Sound and Light) रूप में परिवर्तित होती रहती है और पुनः ध्वनि और प्रकाश की ही संयुक्त क्रिया से इलेक्ट्रान उत्पन्न होता रहता है। चूँकि इसकी श्रंखला चेतनाहीन शक्ति और विचार हीन ध्वनि और प्रकाश से रहती है, इसलिए यह स्वतः क्रियाशीलता से हीन रहता है। हालाँकि यह गतिशील होता है फिर भी वैचारिक क्रियाओं से हीन होता है।
चेतन आत्मा का संघटित रूप अक्षय-बिन्दु और शक्ति (चेतना हीन) का संघटित रूप इलेक्ट्रान –
अभी-अभी पिछले प्रकरण में हम लोगों ने देखा कि किस प्रकार चेतन-आत्मा से जीव; पुनः जीव से किस प्रकार अक्षय-बिन्दु उत्पन्न और क्रियाशील होता है। दूसरी तरफ चेतनाहीन शक्ति से किस प्रकार ध्वनि और प्रकाश; पुनः ध्वनि और प्रकाश किस प्रकार इलेक्ट्रान बन जाता है। इस प्रकार अक्षय-बिन्दु और इलेक्ट्रान की उत्पत्ति और बनने की प्रक्रिया चूँकि चेतन-आत्मा और शक्ति के द्वारा परमात्मा और आदि-शक्ति के निर्देशन और क्रिया-प्रक्रिया के माध्यम से होती रहती है जिसकी जानकारी सामान्यतः सभी को नहीं हो पाती है। जब कोई उत्कट जिज्ञासा और लगन के साथ प्रयत्नशील रहता है, तब जाकर सूक्ष्म और स्थूल के मध्य दोनों को आपस में सम्बन्ध स्थापित करने-कराने वाले अक्षय-बिन्दु रूप नाद-बिन्दु और इलेक्ट्रान रूप ध्वनि और प्रकाश की जानकारी हो पाती है। इस प्रकार अक्षय-बिन्दु रूप नाद बिन्दु को पकड़ने (जानकारी करने) वाला योगी-महात्मा और इलेक्ट्रान रूप ध्वनि और प्रकाश को पकड़ने (जानकारी करने) वाला वैज्ञानिक है। ये दोनों योगी-महात्मा और वैज्ञानिक दिखलाई तो सामान्य व्यक्ति की तरह ही देते हैं। परन्तु क्या ये सामान्य व्यक्ति हैं ? कभी नहीं। ये दोनों ही विशिष्ट पुरुष होते हैं। इन दोनों की विशिष्टता शरीर पर नहीं दिखलाई देती है बल्कि इनकी जानकारी रूप साधना और साधन से ज्ञात हो पाती है।
अभी-अभी पिछले प्रकरण में हम लोगों ने देखा कि किस प्रकार चेतन-आत्मा से जीव; पुनः जीव से किस प्रकार अक्षय-बिन्दु उत्पन्न और क्रियाशील होता है। दूसरी तरफ चेतनाहीन शक्ति से किस प्रकार ध्वनि और प्रकाश; पुनः ध्वनि और प्रकाश किस प्रकार इलेक्ट्रान बन जाता है। इस प्रकार अक्षय-बिन्दु और इलेक्ट्रान की उत्पत्ति और बनने की प्रक्रिया चूँकि चेतन-आत्मा और शक्ति के द्वारा परमात्मा और आदि-शक्ति के निर्देशन और क्रिया-प्रक्रिया के माध्यम से होती रहती है जिसकी जानकारी सामान्यतः सभी को नहीं हो पाती है। जब कोई उत्कट जिज्ञासा और लगन के साथ प्रयत्नशील रहता है, तब जाकर सूक्ष्म और स्थूल के मध्य दोनों को आपस में सम्बन्ध स्थापित करने-कराने वाले अक्षय-बिन्दु रूप नाद-बिन्दु और इलेक्ट्रान रूप ध्वनि और प्रकाश की जानकारी हो पाती है। इस प्रकार अक्षय-बिन्दु रूप नाद बिन्दु को पकड़ने (जानकारी करने) वाला योगी-महात्मा और इलेक्ट्रान रूप ध्वनि और प्रकाश को पकड़ने (जानकारी करने) वाला वैज्ञानिक है। ये दोनों योगी-महात्मा और वैज्ञानिक दिखलाई तो सामान्य व्यक्ति की तरह ही देते हैं। परन्तु क्या ये सामान्य व्यक्ति हैं ? कभी नहीं। ये दोनों ही विशिष्ट पुरुष होते हैं। इन दोनों की विशिष्टता शरीर पर नहीं दिखलाई देती है बल्कि इनकी जानकारी रूप साधना और साधन से ज्ञात हो पाती है।
योगी-महात्मा और वैज्ञानिक दोनों के क्रिया-कलाप एक समान होते हैं। अन्तर यह है कि योगी-महात्मा आध्यात्मिक क्षेत्र में चेतन-आत्मा से सम्बंधित होता है और वैज्ञानिक विज्ञान क्षेत्र में चेतनहीन शक्ति से सम्बंधित होता है। यही कारण है कि योगी-महात्मा के आध्यात्मिक प्रयोग में किसी भी साधन (वस्तुगत) की आवश्यकता नहीं पड़ती है जबकि वैज्ञानिक कोई भी वैज्ञानिक प्रयोग साधन (वस्तुगत) के बिना कर ही नहीं सकता। दूसरे शब्दों में योगी-महात्मा का कार्य चेतन-आत्मा से सम्बंधित होता है जबकि वैज्ञानिक का कार्य जड़-जगत् से सम्बंधित होता है। उदाहरणार्थ वैज्ञानिक यदि विद्युत-शक्ति केन्द्र की मशीन है तो योगी-महात्मा चेतन-शक्ति केन्द्र का। यदि वैज्ञानिक सामान्य मानव शरीर और सांसारिक विकास की जानकारी और लाभ उपलब्ध कराते हैं तो योगी-महात्मा सामान्य मानव की जीवात्मा और उसके आध्यात्मिक विकास की जानकारी और लाभ उपलब्ध कराते हैं।
योगी-महात्मा और वैज्ञानिक परस्पर विरोधी न बनें सामान्य मानव तथा वैज्ञानिक को कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि विज्ञान ने तो समाज को काफी उन्नति के स्थान पर पहुँचाया है परन्तु अध्यात्म ने क्या किया ? इसी प्रकार योगी-महात्मा को भी कभी भी यह नहीं कहना चाहिए कि विज्ञान मात्र विनाशक साधन और जानकारी के सिवाय कुछ है ही नहीं, क्योंकि विज्ञान ने तो समाज को शान्ति और आनन्द शून्य बना दिया है अर्थात् विज्ञान ने शान्ति और आनन्द हेतु क्या किया ?
अतः योगी-महात्मा और वैज्ञानिक को कभी भी एक-दूसरे के विरोधी का पक्ष नहीं लेना चाहिए क्योंकि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे का अनिवार्यतः पहलू है। साथ ही दोनों का आपस में अनन्य सम्बन्ध होता है जिसको संसार के अन्तर्गत नासमझदारी वश भले ही इनकार किया जाय, परन्तु मिटाया अथवा समाप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अब तक का यह प्रमाण है कि जब-जब अध्यात्म और विज्ञान अथवा आध्यात्मिकता और भौतिकता का आपस में टकराव हुआ है, तब-तब अध्यात्म और विज्ञान; दोनों का उत्पत्तिकर्ता और संचालन कर्ता रूप परमेश्वर अपने परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होकर किसी शरीर के माध्यम से दोनों को शान्तिमय ढंग से समझाते है और नहीं समझने और नहीं मानने पर अपनी संहारक प्रक्रिया प्रारम्भ करके सबको ‘ठीक’ करते हुये दोनों- तन्त्रों आध्यात्मिक और वैज्ञानिक (भौतिक) को स्वयं अपने हाथों में लेकर शान्ति और आनन्द का राज्य कायम कर पुनः अपने परमधाम को चले जाते हैं। यह एक बार का ही नहीं अनेकों बार का यथार्थतः ऐतिहासिक प्रमाण सद् ग्रंथों में भरा पड़ा है। यदि किसी को न दिखलाई दें तो इसका दोषी सद् ग्रंथ थोड़े ही होंगे।
अब महत्ता अवतार को जानने और पहचानने की हैवर्तमान में अध्यात्म और विज्ञान को लेकर योगी-महात्मा और वैज्ञानिकों में आपस में आपस में विरोध और टकराव और विरोध को देखते ही पुनः उसी परमेश्वर का अवतरण होकर अपने अनुकूल शरीर धारण कर अपनी प्रक्रिया चालू कर दी है, जिसकी विश्व्स्तरीय भविष्यवक्तागण, ज्योतिषीगण, आध्यात्मिक महात्मागण सभी घोषित करते हुये स्वीकार कर रहे हैं। विशेषता और महत्ता तो इस बात की है कि कौन उनको तथा उनकी प्रक्रिया को जान-पहचान कर सेवार्थ सहयोग देता है और न जानते और न मानते हुये उनसे और उनकी प्रक्रिया में टकराकर कौन विनाश को प्राप्त होता है।
परमब्रह्म परमेश्वर के अवतरण की परिस्थिति
विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही परमब्रह्म परमेश्वर से उत्पन्न शरीर और जीवात्मा से सम्बंधित दो पद्धतियाँ हैं, जो वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महात्माओं द्वारा जो कि परमेश्वर के प्रतिनिधि होते हैं, प्रतिपादित होती हैं। ये दोनों ही परमेश्वर द्वारा प्रेषित किए जाते हैं कि नाना विधि-विधानों और साधनों और साधना से युक्त क्रिया-प्रक्रिया द्वारा मानव समाज को शान्ति और आनन्द के रूप में नाना प्रकार की सामग्रियों और नाना प्रकार की साधना प्रक्रियाओं द्वारा कायम करें और कायम रखें। परन्तु यहाँ आकर दोनों प्रकार के प्रतिनिधि लोग आपस में मिलकर कार्य करने के बजाय आपस में विरोधी रूप लेकर एक दूसरे को मिथ्या और महत्वहीन साबित करने में लग गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि जिस शान्ति और आनन्द को मानव समाज में स्थापित और उपलब्ध कराने हेतु भेजे गए थे, आपस में एक दूसरे को मिथ्या और महत्वहीन घोषित करते हुये मानव समाज में ऐसी धारणा स्थापित कर दी कि दोनों के अनुयायी एक दूसरे से घृणा और द्वेष करने लगे। समाज में जो शान्ति और आनन्द था वह भी लुप्त हो गया और पूरा का पूरा समाज ही शान्ति और आनन्द शून्य हो गया और जिधर देखिए उधर शान्ति और आनन्द हेतु संघर्ष हो रहा है। अब स्थिति इस रूप में पहुँच गयी है कि अब निकट भविष्य में ही ‘समग्र जन-क्रान्ति’ हो। अब तक के प्रमाणों से भी प्रमाणित ही होता है कि जब घोर अशान्ति की लहर भू-मण्डल पर छा जाती है उसी वक्त परमप्रभु भू-मण्डल पर आता है। इसीलिए अब वही परमप्रभु भू-मण्डल पर पुनः आया है और सभी को ठीक करने वाली क्रिया-प्रक्रिया में जुट गया है। बात केवल जानने और पहचानने की है।
परमेश्वर का योगी-महात्माओं और वैज्ञानिकों को शान्ति और आनन्द हेतु मिलकर कार्य करने का निर्देश
प्यारे योगी-महात्माओं और वैज्ञानिकों ! आपस में मिलकर कार्य करने में ही सबकी भलाई है। कभी भी एक दूसरे को मिथ्या भ्रामक एवं महत्वहीन घोषित न करें। आप योगी-महात्मा हों या वैज्ञानिक; थोड़ा भी विचार तो करें कि दोनों का लक्ष्य मात्र शान्ति और आनन्दमय समाज करना ही तो है। क्या आज तक का कोई प्रमाण ऐसा है कि आपसी डाह-द्वेष, घृणा और संघर्ष से किसी को कभी भी शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हुई है ? विचारों द्वारा शूध तो करें; अन्त में यह निष्कर्ष निकलेगा कि कभी भी, कहीं भी और किसी को भी आपसी डाह, द्वेष, घृणा और संघर्ष के माध्यम से शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हुई है। वह भी जब विज्ञान और अध्यात्म ही यदि टकरा गए; जैसा कि वर्तमान में है, तो और ही सोचनीय और विचारणीय बात यह हो जाती है कि क्या शरीर और जीवात्मा आपस में टकराकर शान्ति और आनन्द से कायम रह सकते हैं ? कदापि नहीं। कभी नहीं।
विज्ञान अध्यात्म का शरीर और अध्यात्म विज्ञान की जीवात्मा
चूँकि विज्ञान शरीर और जड़-जगत् का क्रमबद्ध प्रायोगिक ज्ञान है तो अध्यात्म शरीर और जड़-जगत् में निहित आत्म-शक्ति का साधनात्मक ज्ञान है। दोनों ही प्रायोगिक अध्ययन पद्धति हैं। इसीलिए यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि विज्ञान अध्यात्म का शरीर और अध्यात्म विज्ञान की जीवात्मा होती है।
चूँकि वैज्ञानिक विज्ञान के द्वारा-महात्मा तथा समाज की शारीरिक बाहय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नाना तरह की अत्याधुनिक सामग्रियाँ उपलब्ध कराते हैं; तो आध्यात्मिक-महात्मागण वैज्ञानिकों तथा मानव समाज को शान्ति और आनन्द हेतु जीवात्मा से सम्बंधित नाना प्रकार की साधना प्रक्रियाओं को जना-बता और करा कर अध्यात्म द्वारा शान्ति और आनन्द को ही उपलब्ध कराते हैं। इन दोनों अध्यात्म और विज्ञान को चाहिए कि जीवात्मा और शरीर के रूप में कायम रहते हुये आपस में इतना घुलमिल कर कार्य करें, शान्ति और आनन्द को प्राप्त करें कि स्वर्गीय देवता भी भू-मण्डल देखने, शान्ति और आनन्द को प्राप्त करने हेतु तरसें। वर्तमान घड़ी पृथ्वी के लिए कितनी सौभाग्य की है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, जड़-चेतन आदि सबके उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता रूप परमेश्वर मानव को मात्र शान्ति और आनन्द ही नहीं अपितु जिज्ञासु, श्रद्धालु और समर्पित भक्तों को अपनी यथार्थतः जानकारी और पहचान कराने वाला तत्त्वज्ञान देकर सेवा-भक्ति का सुअवसर प्रदान करते हुये मुक्ति और अमरता प्रदान करने हेतु साथ ही साथ पृथ्वी के समस्त अत्याचारियों का सफाया करने-कराने तथा सज्जनों और सत्पुरुषों का शान्ति और आनन्दमय समाज कायम कराने हेतु सामान्य मनुष्य के रूप में विचरण कर रहे हैं। बुद्धिमत्ता और महत्ता अब इस बात की है कि ऐसे मनुष्य रूप में विचरण करते हुये परमप्रभु को कौन जान और पहचान कर इनकी युग परिवर्तन रूप शान्ति और आनन्द कायम करने वाली प्रक्रिया में सेवार्थ स्वीकृति रूप सौभाग्य को प्राप्त होता है और कौन इनकी दुष्ट-दलन रूप संघर्ष-प्रक्रिया में टकराकर कुचल कर विनाश के मुख में प्रवेश करता है ?
वैज्ञानिकों और योगी-महात्माओं का भ्रममूलक मिथ्याज्ञानाभिमानवज्ञानिक लोग पदार्थों के संघटित रूप को तो जानते ही नहीं कि आखिरकार विश्व की समस्त वस्तुएं कैसे बन जाया करती हैं ? उनके लिए कौन सी प्रयोगशाला है और कहाँ पर है ? प्रयोगशाला में वस्तुएं कहाँ से आती हैं ? उस प्रयोगशाला का वैज्ञानिक कौन है ? वह कहाँ रहता है ? विज्ञान ने बहुत प्रगति की है परन्तु आजतक एक भी जौ, चना, गेहूँ, चावल, अरहर, आलू, आम, नींबू, अमरूद, केला, सेव, सन्तरा आदि-आदि में से एक भी तो कुछ पैदा करके नहीं दिखलाया ।
ठीक यही हाल आध्यात्मिक महात्मा जी लोगों का है कि मिथ्याज्ञानाभिमान में इतना फूले हुये हैं कि साक्षात् भगवान का अवतार ही बनने लगे हैं। वह भी एक या दो नहीं, सब के सब ही अवतार ही बन रहे हैं। जबकि इन लोगों को यह भान (जानकारी) हो चुका है कि परमेश्वर का अवतरण भू-मण्डल पर हो गया है। वह परमप्रभु सबका निरीक्षण-परीक्षण करने हेतु मनुष्य शरीर धारण करके, वह भी सामान्य गृहस्थ परिवार के सामान्य मनुष्य रूप में ही, ताकि सभी लोग देख व पहचान न सकें। पहचान भी हो, तो विश्वास ही न हो सके। जब इस प्रकार की जानकारी इन महातमन् बंधुओं को है ही क्योंकि ये सभी लोग इन बातों की घोषणाएँ कर रहे हैं। ये लोग यह भी जानते हैं कि परमेश्वर कभी भी अभिमान, अहंकार आदि में फूले हुये महात्मा, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, विद्वान, प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों सहित प्रशासनिक नेता आदि आदि में से किसी को भी, जो अत्याचार, भ्रष्टाचार और अहंकार आदि में लगे हुये और फूले हुये हैं, ‘ठीक’ किए बिना अब छोड़ नहीं सकता। इसका समय अब अति निकट है। अभी तो वह निरीक्षण-परीक्षण में लगा है
वैज्ञानिक लोग पदार्थ-तत्त्वों को ही वह परमतत्त्वं समझकर तत्त्व वाले बने हैं, तो आध्यात्मिक जीवात्मा (जीव से आत्मा तक) रूप हंसो-सोsहं को ही तत्त्व घोषित करने लगे हैं। यथार्थ बात तो यह है कि न तो पदार्थ-तत्त्व ही परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा होता है और न ही हंसो-सोsहं तथा ज्योति ही परमात्मा होता है। आध्यात्मिक महात्मा लोगों को बिल्कुल ही नहीं पता कि जीव क्या होता है? आत्मा कहाँ से उत्पन्न होती है और अन्त में कहाँ को चली जाती है ? आत्मा आती कैसे है ? और जाती कैसे है ? इन बंधुओं को मात्र इतनी ही जानकारी होती है कि जीव और आत्मा का मिलन (योग) किस प्रकार होता है तथा आपसी मिलन में जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसकी अनुभूति होती है।
अतः वैज्ञानिकों का पदार्थ-तत्त्व मात्र जड़ के अन्तर्गत ही आता है और आध्यात्मिकों का जीवात्मा जीवात्मा (स्वांस-प्रस्वांस तथा ध्यान द्वारा हंसो-सोsहं तथा ज्योति) वाली आध्यात्मिक साधना प्रणाली द्वारा आत्मज्योति मात्र चेतन के अन्तर्गत आता है। यथार्थ बात यह है कि जड़ और चेतन दोनों अलग-अलग तत्त्व नहीं होते हैं, अपितु इन दोनों की उत्पत्ति जहाँ से होती है, मूलतः तत्त्व तो वह होता है और वह मूलतत्त्व ही परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमेश्वर होता है जो सदा-सर्वदा परमआकाश रूप परमधाम में रहते हैं और समय-समय पर मानव सुधार और उद्धार हेतु भू-मण्डल पर आया करते हैं। वह आत्मतत्त्वम् शब्द रूप परमभाव-प्रभाव वाला परमेश्वर ही जब शरीरधारी बन भू-मण्डल पर क्रियाशील होता है तो एकमात्र वही भगवदावतार होता है।
अक्षय-बिन्दु का विकसित रूप शरीर और इलेक्ट्रान का संघटित रूप ठोस वस्तु –पिछले प्रकरणों में हम लोगों ने देखा कि किस प्रकार अक्षय-बिन्दु ही गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ के रूप में विकसित हो जाता है। अब अगले प्रकरणों में यह देखना है कि ‘हिरण्य’ विकास क्रम से किस प्रकार शरीर के रूप में विकसित हो जाता है। जिस प्रकार अक्षय-बिन्दु विकास-पद्धति के अनुसार विकसित होकर ‘हिरण्य’ रूप में हो जाता है, ठीक उसी प्रकार इलेक्ट्रान संघटन पद्धति के अनुसार संघटित होकर पाजीट्रान से मिलकर न्यूट्रान के सम्बन्धों से सम्बंधित होकर तीनों संयुक्त रूप में ‘परमाणु’ बन जाता है और संघटन क्रम से ‘अणु’ रूप में परिवर्तित हो जाता है।
उपर्युक्त प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार अक्षय-बिन्दु का विकसित रूप ‘हिरण्य’ होता है, ठीक उसी प्रकार इलेक्ट्रान का संघटित रूप ‘अणु’ होता है। इस प्रकार ‘हिरण्य’ और अणु दोनों एक समान होते हैं। अन्तर दोनों में इतना ही है कि ‘हिरण्य’ सजीव होता है और ‘अणु’ निर्जीव होता है।
‘हिरण्य’ कोषकीय पद्धति से नाना प्रकार के शरीरों के रूप में विकसित हो जाता है और ‘अणु’ आणविक पद्धति से नाना प्रकार की वस्तुओं के रूप में संघटित (निर्मित) हो जाता है। प्रायः पद्धति दोनों की समान ही हैं।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस